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सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
सत्रहवाँ अध्याय(श्रद्धात्रय विभाग योग)हे पार्थ! परमात्मा के ‘सत्’ नाम का प्रयोग सत्तामात्र में और श्रेष्ठ भाव (सद्गुण-सदाचार)- में किया जाता है। श्रेष्ठ कर्म के साथ भी ‘सत्’ शब्द जोड़ा जाता है। यज्ञ, तप तथा दान आदि में मनुष्य की जो स्थिति (निष्ठा, श्रद्धा) है, वह भी ‘सत्’ कही जाती है। उस परमात्मा के निमित्त जो भी लौकिक या पारमार्थिक कर्म किया जाता है, वह सब ‘सत्’ कहा जाता है। तात्पर्य है कि सत्यस्वरूप परमात्मा के साथ संबंध होने से उन कर्मों का फल ‘सत्’ कहा जाता है। तात्पर्य है कि सत्स्वरूप परमात्मा के साथ संबंध होने से उन कर्मों का फल ‘सत्’ हो जाता है अर्थात् उनसे परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
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