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सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
सोलहवाँ अध्याय(दैवासुर सम्पद्विभाग योग)हे कुन्तीनन्दन! यह कितने दुख की बात है कि मनुष्य जन्म में मुझे प्राप्त करने का दुर्लभ अवसर पाकर भी वे मूढ़ मनुष्य मुझे प्राप्त न करके उल्टे पशु, पक्षी आदि आसुरी योनियों में चले जाते हैं और बार-बार उन योनियों में ही जन्म लेते रहते हैं! आसुरी योनियों में जाने पर भी उनके पाप पूरी तरह नष्ट नहीं होते उन बचे हुए पापों का फल भोगने के लिए वे उन आसुरी योनियों से भी अधम गति में अर्थात् भयंकर नरकों में चले जाते हैं। काम, क्रोध और लोभ- ये तीन नरक के दरवाजे हैं, जो मनुष्य का पतन करने वाले हैं। इसलिए इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए। हे कुन्तीनन्दन! जो मनुष्य इन काम-क्रोध लोभ का त्याग करके अपने कल्याण के लिए साधन करता है, वह परम गति को प्राप्त हो जाता है। परंतु जो काम-क्रोध-लोभ के कारण शास्त्रविधि का त्याग करके मनमाना आचरण करता है, उसका न तो अंतःकरण शुद्ध होता है, न उसे सुख-शान्ति मिलती है और न वह परम गति को ही प्राप्त होता है। इसलिए ‘क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए’- इस विषय में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तुम्हें शास्त्र के अनुसार ही हरेक काम करना चाहिए।
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