श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टादश अध्याय
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
वर्त्तमान श्लोक में भगवान् कर्म के तीन प्रकार बता रहे हैं। श्रीमद्भागवत में भी देखा जाता है-
‘मदर्पणं निष्फलं वा सात्त्विकं निजकर्म तत्।
राजसं फलसंकल्पं हिंसाप्रायादि तामसम्।।’[1]
भगवदर्पित निष्काम नित्य कर्म ही सात्त्विक कहलाता है। फल की इच्छा से युक्त कर्म राजसिक है तथा हिंसा, मत्मरता आदि से किया गया कर्म तामसिक कहलाता है।
‘‘भावी क्लेश, धर्म-ज्ञान आदि का नाश, हिंसा अर्थात् आत्मनाश-इन सबकी आलोचना किये बिना मोहवश केवल व्यावहारिक पौरुष-कर्म में प्रवृत होने से, उस कर्म को तामसिक कर्म कहते हैं।’’- श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।25।।
मुक्तसग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित: ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकार:कर्त्ता सात्त्विक उच्यते ॥26॥
जो कर्त्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है, वह सात्त्विक कहा जाता है ॥26॥
भावानुवाद- पहले तीन प्रकार का कर्म बताया गया, अब तीन प्रकार का कर्त्ता बताया जा रहा है।।26।।
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचि: ।
हर्षशोकान्वित: कर्त्ता राजस: परकीर्त्तित: ॥27॥
जो कर्ता आसक्ति से युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है, वह राजस कर्ता कहा गया है ॥27॥
भावानुवाद- ‘रागी’ - कर्म में आसक्त, ‘लुब्धः’- विषय में आसक्त ।।27।।
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