श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 517

Prev.png

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टादश अध्याय

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- वर्त्तमान श्लोक में भगवान् कर्म के तीन प्रकार बता रहे हैं। श्रीमद्भागवत में भी देखा जाता है-

‘मदर्पणं निष्फलं वा सात्त्विकं निजकर्म तत्।
राजसं फलसंकल्पं हिंसाप्रायादि तामसम्।।’[1]

भगवदर्पित निष्काम नित्य कर्म ही सात्त्विक कहलाता है। फल की इच्छा से युक्त कर्म राजसिक है तथा हिंसा, मत्मरता आदि से किया गया कर्म तामसिक कहलाता है।

‘‘भावी क्लेश, धर्म-ज्ञान आदि का नाश, हिंसा अर्थात् आत्मनाश-इन सबकी आलोचना किये बिना मोहवश केवल व्यावहारिक पौरुष-कर्म में प्रवृत होने से, उस कर्म को तामसिक कर्म कहते हैं।’’- श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।25।।

मुक्तसग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित: ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकार:कर्त्ता सात्त्विक उच्यते ॥26॥
जो कर्त्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है, वह सात्त्विक कहा जाता है ॥26॥

भावानुवाद- पहले तीन प्रकार का कर्म बताया गया, अब तीन प्रकार का कर्त्ता बताया जा रहा है।।26।।

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचि: ।
हर्षशोकान्वित: कर्त्ता राजस: परकीर्त्तित: ॥27॥
जो कर्ता आसक्ति से युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है, वह राजस कर्ता कहा गया है ॥27॥

भावानुवाद- ‘रागी’ - कर्म में आसक्त, ‘लुब्धः’- विषय में आसक्त ।।27।।

Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा.11/25/23

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः