श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 518

Prev.png

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टादश अध्याय

अयुक्त: प्राकृत: स्तब्ध: शठो नैष्कृतिकोऽलस: ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्त्ता तामस उच्यते ॥28॥
जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है- वह तामस कहा जाता है ॥28॥

भावानुवाद- ‘अयुक्त’:’ का तात्पर्य र्ह- अनुचित कार्य करने वाला। ‘प्राकृत‘’ अपने स्वभाव में विद्यमान। ऐसे लोग वही कार्य करते हैं, जो इनके मन में आता है, यहाँ तक कि गुरु के वचनों को भी नहीं मानते हैं। ‘नैष्कृतिकः’- दूसरे का अपमान करने वाला। अतएव ज्ञानियों के द्वारा उक्त लक्षण वाला सात्त्विक त्याग ही कर्त्तव्य है, सात्त्विक कर्मनिष्ठ ज्ञान ही आश्रययोग्य है। सात्त्विक कर्म ही कर्त्तव्य है। सात्त्विक कर्त्ता होना ही उचित है, यही ज्ञानियों का संन्यास है। यही मेरे सम्बन्ध में ज्ञान है। इस प्रकरण का यही सारार्थ है। किन्तु, भक्तों का जो ज्ञान है, वह त्रिगुणातीत है, मेरे लिए किया गया त्रिगुणातीत कर्म भक्ति कहलाता है और वह कर्त्ता भी त्रिगुणातीत होता है जैसा कि श्रीमद्भागवत[1] में कहा है- ‘‘कैवल्य ज्ञान सात्त्विक है, वैकल्पिक ज्ञान राजस है, प्राकृत ज्ञान तामस है और मेरे प्रति निष्ठा वाला ज्ञान निर्गुण कहा जाता है।’’ ‘‘अभी निर्गुण भक्ति योग का लक्षण कहा गया।’’[2]‘‘अनासक्त कर्त्ता सात्त्विक, आसक्तियुक्त कर्त्ता राजसिक, स्मृति-विभ्रष्ट कर्ता तामसिक और मेरे शरणागत कर्त्ता निर्गुण कर्त्ता कहलाता है।’’[3]और भक्ति के मत से केवल ये तीन[4] ही निर्गुण हैं- ऐसा नहीं है, बल्कि भक्ति-सम्बन्धी सभी गुणातीत हैं। जैसा कि श्रीमद्भागवत[5]में ही श्रद्धा के विषय में कहा गया है- ‘‘ आध्यात्मिकी श्रद्धा सात्तिवकी, कर्म को प्रति श्रद्धा राजसी, अधर्म के प्रति श्रद्धा तामसी है, किन्तु मेरी सेवा की प्रति जो श्रद्धा है, वह निर्गुण है।’’ वास के विषय में कहा गया है- ‘‘वन में वास सात्त्विक है, ग्राम में वास रासिक है, द्यूत गृह[6] में वास तामसिक है, किन्तु, मेरा निकेतन अर्थात् पूजागृह और भक्तसंग निर्गुण है।’’ [7] सुख के विषय में कहा गया है- ‘‘आत्मा से उदित सुख सात्त्विक है, विषय में उत्पन्न से सुखस राजसिक है, मोह-दैन्य से उत्पन्न सुख तामसिक है और मेरी शरण लेने से जो सुख प्राप्त होता है, वह निर्गुण है।’’ [8] अतएव इसी प्रकार गुणातीत भक्तों के भक्ति-सम्बन्धी ज्ञान, कर्म, श्रद्धा आदि में निजसुख-सभी गुणातीत हैं। सात्त्विक ज्ञानियों के ज्ञान-सम्बन्धी सभी कुछ सात्त्विक हैं राजसिक कर्मियों के सभी कुछ राजसिक हैं, तामसिक उच्छृंखल व्यक्तियों से सम्बधिन्त सभी कुछ तामसिक हैं- यही श्रीगीता और श्रीमद्भागवत से जाना जाता है। चौदहवें अध्याय में यह भी कहा गया है कि ज्ञानियों को भी अन्तिम दशा में ज्ञान में ज्ञान के संन्यास से उर्वरिता केवला भक्ति के द्वारा ही गुणातीतत्त्व की उपलब्धि होती है।।28।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

श्रीमद्भागवत में सात्त्विक आदि के भेद से कर्ता भी तीन प्रकार का बताया गया है-

‘सात्त्विकः कारकोऽसंगी रागान्धो राजसः स्मृतः।
तामसः स्मृतिविभ्रष्टो निर्गुणो मदपाश्रयः।।’[9]

अर्थात अनासक्त कर्त्ता सात्त्विक, कर्म और कर्मफल में अत्यन्त आसक्त कर्त्ता राजसिक, विवेकशून्य कर्ता तामसिक तथा मेरे शरणागत भक्त निर्गुण होते हैं।।28।।

Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11/25/24
  2. श्रीमद्भा. 3/29/12
  3. श्रीमद्भा. 11/25/23
  4. ज्ञान, कर्म तथा कर्त्ता
  5. 11/25/27
  6. नानास कमट-क्रीड़ापूर्ण नगर
  7. श्रीमद्भा. 11/25/25
  8. श्रीमद्धा. 11/25/29
  9. श्रीमद्भा. 11/25/26

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः