श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 89

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
तृतीय अध्याय

अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत् किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥1॥
अर्जुन ने कहा– हे जनार्दन, हे केशव! यदि आप बुद्धि को सकाम कर्म से श्रेष्ठ समझते हैं, तो फिर आप मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हैं?

भावानुवाद- इस तीसरे अध्याय में निष्काम भाव से अर्पित कर्म का विस्तार से वर्णन किया जाएगा और काम-क्रोधादि को जीतने के इच्छुक पुरुष का विवेक भी प्रदर्शित होगा।

पिछले अध्याय के श्लोकों के द्वारा अर्जुन ने ज्ञानयोग तथा निष्काम कर्मयोग की अपेक्षा निस्त्रैगुण्य को प्रदान करने वाले गुणातीत भक्तियोग की श्रेष्ठता को जाना। ऐसा जानने के पश्चात् उसके प्रति अपनी उत्कण्ठा प्रकाशित करते हुए संग्रामरूप स्वधर्म में प्रवृत्त कराने वाले भगवान् को सख्यभाव से उलाहना देते हुए कहते हैं-“यदि व्यवसायात्मिका गुणातीता बुद्धि श्रेष्ठ है, तो आप मुझे इस युद्धरूप घोर कर्म में नियोजित क्यों कर रहे हैं? हे जर्नादन! आप तो ‘जन’ अर्थात् स्वजन को अपने आदेश के द्वारा पीड़ा प्रदान करते हैं। आपकी आज्ञा का उल्लंघन करने में कोई समर्थ नहीं है, क्योंकि आप तो ‘केशव’ अर्थात्:क’-ब्रह्या और ‘ईश’-महादेव को भी ‘व’-वश में करने वाले हैं।।”1।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

इस श्लोक में अर्जुन ने श्रीकृष्ण को ‘केशव’ और ‘जनार्दन’ नाम से सम्बोधित किया है, इसका भी गूढ़ रहस्य है। अर्जुन ने यह प्रश्न किया-“हे जनार्दन! आपने पहले कर्म की अपेक्षा व्यवसायात्मिका गुणातीता भक्ति-विषयिणी बुद्धि को श्रेष्ठ बताया, तथापि मुझे घोर हिंसायुक्त संग्राम में नियुक्त क्यों कर रहे हैं? आप अपने प्रिय आश्रित और स्वजन को अपने आदेश से पीड़ा प्रदान करते हैं, इसीलिए अभिज्ञ लोगों ने आपका नाम ‘जनार्दन’ उपयुक्त ही रखा है। ‘जन’ नामक असुर का मर्दन करने के कारण आपकी निष्ठुरता भी परिलक्षित होती है, इसलिए भी आपना ‘जनार्दन’ नाम सार्थक ही है। साथ-ही-साथ ‘केशी’ दैत्य का वध करने वाले आपका ‘केशव’ नाम भी उपयुक्त ही है। क-ब्रह्या, ईश-महादेव-इन दोनों को ही ‘व’-वश में रखनेवाले आप केशव हैं। फिर, मैं तुच्छ व्यक्ति आपके आदेश का कैसे उल्लंघन कर सकता हूँ? प्रभो! आप मुझपर कृपा करें।”

हरिवंश में भी श्रीकृष्ण के प्रति श्रीरुद्र ने कहा है-

‘केशव-क इति ब्रह्यणो नाम ईशोऽहं सर्वदेहिनाम्।
आवां तवांगसम्भूतौ तस्मात् केशवनामभाक्।।’

अर्थात् ‘क’-ब्रह्या, ईश-सभी प्राणियों का ‘ईश’ मैं शंकर-ये दोनों आपके अंग से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए आपका नाम केशव है।।1।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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