श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तदश अध्याय
भावानुवाद - सत्कर्म के बारे में सुना, किन्तु असत् कर्म क्या है? इस प्रश्न की अपेक्षा कर श्री भगवान् ‘अश्रद्धया’ इत्यादि कह रहे हैं। अश्रद्धा पूर्वक ‘हुतं’ - होम, ‘दत्तं’ - दान, ‘तपः’ - तपस्या, ‘कृतं’ - अन्य जो कुछ किये जाय, वे सभी असत् हैं अर्थात् होम करने पर भी वह होम नहीं है, दान करने पर भी दान नहीं है, तपस्या करने पर भी वह तपस्या नहीं है और जो कुछ भी किया जाता है, वह नहीं किया गया। क्योंकि, ‘तत् न प्रेत्य न इह’- परलोक की तो बात दूर रहे, इस लोक में भी ये फल नहीं देते ।।28।।
विविध प्रकार के कहे गये कर्मों में सात्त्विकी श्रद्धा के साथ किये जाने पर ही वे कर्म मोक्ष दायक होते हैं - यही इस अध्याय में निरूपित हुआ।
श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तदश अध्याय की साधु जनसम्मता भक्तानन्द दायिनी सारार्थवर्षिणी टीका समाप्त।
श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तदश अध्याय की सारार्थ वर्षिणी टीका का हिन्दी अनुवाद समाप्त।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
भगवत-सेवा के उद्देश्य से हरि-गुरु-वैष्णवों की सेवा के लिए भिक्षा-संग्रह, कूप-निर्माण, तालाब-निर्माण, पुष्पोद्यान, तुलसी एवं वृक्षारोपण, मन्दिर-निर्माण - ये सब तदर्थीय कर्म भी ‘सत्’ हैं।
“हे अर्जुन! निर्गुण श्रद्धा के अतिरिक्त जो यज्ञ, दान और तपस्या अनुष्ठित होते हैं, वे सभी असत् हैं। ये सभी क्रियाएँ अभी या बाद में कभी भी उपकार नहीं करतीं। अतएव शास्त्र समूह निर्गुण श्रद्धा का ही उपदेश देते हैं। शास्त्र का परित्याग करने से निर्गुण श्रद्धा का परित्याग करना पड़ता है। निर्गुण श्रद्धा ही भक्ति-लता का एक मात्र बीज है।”- श्री भक्ति विनोद ठाकुर ।।28।।
श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायणकृत श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तदश अध्याय की सारार्थ वर्षिणी- प्रकाशिका-वृत्ति समाप्त।
सप्तदश अध्याय समाप्त।
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