श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
द्वितीय अध्याय
सञ्जय उवाच-
सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन: ॥1॥
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥2॥
उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूदन ने यह वचन कहा ॥1॥
श्रीभगवान् ने कहा– हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है, जो जीवन के मूल्य को जानता हो। इससे उच्चलोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है॥2॥
भावानुवाद-
इस द्वितीय अध्याय में भगवान श्री कृष्ण चन्द्र ने आत्म तथा अनात्म विवेक के द्वारा शोक-मोहरूपी अन्धकार को दूर करते हुए मुक्त पुरुषों का लक्षण कहा है। ‘कश्मलम्’ का अर्थ है - मोह, ‘विषमे’ का अर्थ है - इस युद्ध संकट में, ‘कुतः’ का अर्थ है - किस कारण से, ‘उपस्थितं’ का अर्थ है - तुम्हें आश्रय किया है। ‘अनार्यजुष्टम’ का तात्पर्य है- सुप्रतिष्ठित लोगों के द्वारा असम्मानित एवं ‘अस्वर्ग्यम अकीर्त्तिकरम्’ का तात्पर्य है- पारमार्थिक और ऐहिक सुखों के प्रतिकूल।।1-2।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
धृतराष्ट्र को यह जानकर बहुत ही आनन्द हुआ कि युद्ध के पूर्व ही अर्जुन के हृदय में सहसा धर्म-प्रवृत्ति जाग उठी है। वह ‘अहिंसा परमोधर्मः’ की नीति का अवलम्बन कर युद्ध से विमुख हो रहा है। उन्होंने मन-ही-मन विचार किया - “सौभाग्य की बात है कि युद्ध नहीं होने से मेरे पुत्रों का राज्य निर्विघ्न और अटल हो जाएगा।” तथापि, उन्होंने यह प्रश्न किया- “तत्पश्चात् क्या हुआ?” सूक्ष्म बुद्धि सम्पन्न सञ्जय ने उनकी भावना को समझ लिया। उन्होंने बड़ी कुशलतापूर्वक अन्धराज के अनुमान एवं आशा को चूर्ण करते हुए कहा- “अर्जुन की ऐसी स्थिति को देखकर भी भगवान श्री कृष्ण ने उसकी उपेक्षा नहीं की, बल्कि जिस प्रकार उन्होंने मधु दैत्य का वध किया था, अपने उसी दुष्ट-दलन स्वभाव में स्थित रहकर इस समय भी वे अपने स्वाभाविक दुष्ट-दलन संस्कार को अर्जुन के हृदय में सञ्चारित कर आपके पुत्रों का वध करवायेंगे। अतः आप बिना युद्ध के ही राज्य प्राप्ति की आशा का पोषण न करें।”
सञ्जय पुनः धृतराष्ट्र से श्री कृष्ण की उक्तियों का वर्णन करने लगे - “युद्ध करना क्षत्रियों का स्वधर्म है। ऐसे युद्ध के समय तुम स्वधर्म से क्यों विमुख हो रहे हो। जिस युद्ध में मोक्ष, स्वर्ग और कीर्ति प्राप्त होगी, उस धर्म युद्ध के समय युद्ध से तुम्हारा वैराग्य होना अनार्य-जुष्ट अर्थात् मुक्ति का विरोधी, अस्वर्ग्य अर्थात् पारलौकिक स्वर्ग लाभ का विरोधी तथा अकीर्त्ति कर अर्थात लौकिक सुख या कीर्त्ति का नाश करने वाला है।।1-2।।
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