श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
द्वादश अध्याय
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा: ॥1॥
अर्जुन बोले- इस प्रकार निरन्तर प्रयत्न में लगे हुए जो भक्त आपकी भली-भाँति उपासना करते हैं और जो अव्यक्त अक्षर की उपासना करते हैं, उनमें उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?।।1।।
भावानुवाद- द्वादश अध्याय में ज्ञानियों की अपेक्षा सभी भक्तों की श्रेष्ठता के बारे में कहा गया है। भक्तों में भी जो अद्वेषादि गुणों से युक्त हैं, उनकी ही प्रशंसा की गई है।
भक्ति प्रकरण के उपक्रम (भूमिका) में अर्जुन ने यह श्रवण किया कि जो श्रद्धायुक्त होकर मदद्रतचित्त से मेरा भजन करते हैं, वे सभी प्रकार के योगियों में युक्तम् अर्थात् श्रेष्ठ हैं, यही मेरा अभिमत है। [1]जिस प्रकार इन वाक्यों में अर्जुन ने भक्त की सर्वश्रेष्ठता के विषय में श्रवणकिया, उसी प्रकार उपसंहार में भी भक्त की सर्वश्रेष्ठता के विषय में श्रवण करने को इच्छुक होकर ऐसी जिज्ञासा कर रहे हैं। आपने ‘सततयुक्ताः’ का तात्पर्य बताया-जो व्यक्ति मेरे कर्मानुष्ठान-परायण हैं। जो व्यक्ति आपके द्वारा कथित उपरोक्त लक्षणों से युक्त होकर ‘त्वां’ अर्थात् श्यामसुन्दररूप आपकी उपासना करते हैं तथा जो निर्विशेष अक्षर ब्रह्म की उपासना करते हैं, जिसे वृहदारण्यक श्रुति में इस प्रकार कहा गया है-“हे गागि!! ब्राह्मणगण उस अक्षर ब्रह्म को अस्थूल, अनणु (असूक्ष्म) अहसव प्रभृति कहते हैं।”-इन दोनों प्रकार के योगविदों में कौन श्रेष्ठ हैं अर्थात् कौन आपको जानने का श्रेष्ठ उपाय जानते हैं अथवा कौन आपको प्राप्त करते हैं? यहाँ मूल श्लोक में ‘योगवित्तमाः’ कहा गया है, दो वस्तुओं में तुलना के लिए ‘योगवित्तर’ का प्रयोग होता है, किन्तु ‘योगवित्तम’ कहने का यही तात्पर्य है कि योगवित्तरों में कौन श्रेष्ठ हैं?।।1।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
शीघ्र-से-शीघ्र भगवत्-प्राप्ति के लिए जितने भी साधन हैं, उनमें शुद्धभक्ति ही एकमात्र सरल, सहज, स्वाभाविक एवं अमोघ प्रभावशाली साधन हैं। इस अध्याय में इस विशुद्धा भक्ति का प्रतिपादन हुआ है।
अर्जुन अब तक भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेशों को बड़े सावधानी से श्रवण कर रहे थे। श्रीकृष्ण ने छठे अध्याय में ‘योगिनामपि सर्वेषां’ श्लोक के माध्यम से कर्मयोगी, ध्यानयोगी और तपयोगी आदि सभी प्रकार के योगियों में भक्तियोगी को श्रेष्ठ बताया। सप्तम अध्याय में ‘मय्यासक्तमनाः’ श्लोक के द्वारा यह बताया कि भक्तियोग का आश्रय करना ही श्रेयस्कर है। अष्टम अध्याय में ‘प्रयाणकाले मनसा अचलेन’ श्लोक के द्वारा योगबल की महिमा, नवम अध्याय में ‘ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये’ श्लोक के द्वारा ज्ञानयोग की बात तथा एकादश अध्याय के अन्त में ‘मत्कर्मकृत् मत्परमो’ श्लोक के द्वारा पुनः भक्तियोग की श्रेष्ठता का वर्णन किया। इन विभिन्न योगों की बातों को सुनकर मानो अर्जुन यह स्थिर न कर सके कि यशोदानन्दन श्यामसुन्दर श्रीकृष्णरूप सविशेष स्वरूप की उपासना श्रेष्ठ है अथवा निःशक्तिक, निराकार एवं अव्यक्तस्वरूप निर्विशेष ब्रह्म की उपासना श्रेष्ठ है। इन दोनों प्रकार के उपासकों में यथार्थतः कौन से योगी योगवित्तम हैं। यहाँ ‘योगवित्तम’ शब्द के द्वारा अर्जुन यह जानना चाहते हैं कि सभी प्रकार के योगियों में कौन श्रेष्ठ हैं?
“अर्जुन ने कहा- हे कृष्ण! आपने अभी तक जो उपदेश दिये, उनसे मैंने यह जाना कि योगी दो प्रकार के हैं। एक प्रकार के योगी समस्त शारीरिक और सामाजिक कर्मों को आपकी अनन्य भक्ति की अधीन-श्रृंखला में बद्धकर आपकी उपासना करते हैं। अन्य प्रकार के योगिगण शारीरिक और सामाजिक कर्मों को निष्काम कर्मयोग द्वारा आवश्यतानुसार स्वीकार कर अक्षर और अव्यक्तरूप आनपे आध्यात्मिक योग का अवलम्बन करते हैं। इन दोनों प्रकार के योगियों में कौन श्रेष्ठ हैं?”- श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।1।।
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