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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
त्रयोदश अध्याय
अर्जुन उचाव
प्राकृतिं पुरुषञ्चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयञ्च केशव॥1॥
अर्जुन ने कहा- हे केशव! मैं प्राकृति, पुरुष, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय- इन सबको जानने की इच्छा करता हूँ।।1।।
भावानुवाद- उस भगवद्भक्ति को नमस्कार कर रहा हूँ, जो ज्ञानादि को सार्थक करने के लिए कृपापूर्वक अपने अंशलेश द्वारा उसमें भी अवस्थान करती है। इस तीसरे षट्क में भक्तिमिश्र ज्ञान निरुपित हुआ है, तथापि बीच-बीच में भंगी के साथ केवला भक्ति का उत्कर्ष कथित हुआ है। तेरहवें अध्याय में शरीर, जीवात्मा, परमात्मा, ज्ञान का साधन, जीव और प्रकृति के विषय में विशेषरूप से विचार किया है।
द्वितीय छह अध्यायों में यह बताया गया है कि केवला भक्ति के द्वारा भगवान् की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त अहंग्रहोपासनादि तीन प्रकार की उपासनाओं के विषय में भी बताया गया। निष्काम कर्मयोगियों को भक्तिमिश्र ज्ञान से मोक्ष होता है-प्रथम छह अध्यायों में इस ज्ञान के विषय में संक्षेपपूर्वक बताया गया है। पुनः क्षेत्र-क्षेत्रज्ञादि का विचारपूर्वक वर्णन करने के लिए तृतीय षट्क का आरम्भ कर रहे हैं।।1।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
श्रीमद्भगवद्गीता में अठारह अध्याय हैं। इन अठारह अध्यायों को तीन भागों में विभक्त किया गया है-पहला षट्क, दूसरा षट्क और तीसरा षट्क। पहले छह अध्यायों में निष्काम कर्मयोग, भक्तिमिश्र ज्ञान, जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान के लिए उपयोगी विषयों का वर्णन किया गया है। दूसरे छह अध्यायों में केवला भक्ति की महिमा, परा और अपरा भक्ति का विवेचन, भगवान् के स्वरूप की महिमा, भक्त् के स्वरूप की महिमा, विभिन्न प्रकार की उपासनाओं में भक्ति का वैशिष्टय और उसकी सर्वश्रेष्ठता आदि विषयों का विचार किया गया। प्रस्तुत तीसरे षट्क अर्थात् अन्तिम छह अध्यायों में प्रकृति, पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विवेचन करते हुए पहले संक्षेप में वर्णित तत्त्वज्ञान का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है तथा अन्तिम अठारहवें अध्याय में श्रीगीता के सर्वगुह्यतम उपदेश का भी वर्णन किया गया है। इस अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन प्रकृति, पुरुष, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय आदि तत्त्वों को जानने के लिए प्रश्न कर रहे हैं। किसी-किसी टीकाकार ने प्रश्नमूलक इस प्रथम श्लोक को छोड़ दिया है।।1।।
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