श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 485

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तदश अध्याय

अर्जुन उवाच-
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विता: ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तम: ॥1॥

अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण ! जो मनुष्य शास्त्रविधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादिका पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन सी है ? सात्त्विकी है अथवा राजसी अथवा तामसी ? ॥1॥

भावानुवाद- अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में श्री भगवान ने सात्तिवक, राजसिक और तामसिक वस्तु के विषय में बताया है।

अर्जुन पूछते हैं - अच्छा, आसुर सर्ग (उत्पत्ति) के विषय में बताने के बाद उसके उपसंहार में आपने कहा कि जो लोग शास्त्र विधि का उल्लंघन कर स्वेच्छाचार में प्रवृत्त होते हैं, वे सिद्धि, सुख अथवा परम गति प्राप्त नहीं कर पाते हैं। [1] यहाँ मैं यह प्रश्न करता हूँ कि जो शास्त्र विधि का उल्लंघन कर स्वेच्छा चार में प्रवृत्त होते हैं, किन्तु काम के भोग से रहित तथा श्रद्धा युक्त होकर ‘यजन्ते’ अर्थात् तपो यज्ञ, ज्ञान यज्ञ, जप यज्ञ आदि का अनुष्ठान करते हैं, उनकी ‘निष्ठा’ अर्थात स्थिति क्या है अर्थात् आलम्बन क्या है? वह सत्त्व है अथवा रजः अथवा तमः, यह कृपा पूर्वक बतावें।।1।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

“इतना सुनकर अर्जुन ने कहा- हे कृष्ण! मुझे संशय हो रहा है। आपने गीता[2]में कहा कि श्रद्धा वान् लोग ही ज्ञान प्राप्त करते हैं, पुनः गीता [3]में कहा कि जो शास्त्र विधि को त्याग कर कामना के साथ (कर्म में) प्रवृत्त होते हैं, उनको सिद्धि, सुख या परा गति प्राप्त नहीं होती है। यहाँ प्रश्न होता है कि यदि श्रद्धा शास्त्र के विपरीत रूप में (अनुशीलित) हो, तो क्या होता है ? इस प्रकार के श्रद्धावान् लोग ज्ञान योग आदि का फल जो सत्त्व संशुद्धि है, क्या उसे प्राप्त नहीं करते हैं ? अतएव मुझे स्पष्ट रूप से बतावें कि जो शास्त्र विधि का परित्याग कर श्रद्धा पूर्वक भजन करते हैं, उनकी निष्ठा को क्या सात्त्विकी कहा जाएगा अथवा राजसी या तामसी?’’ - श्री भक्ति विनोद ठाकुर।।1।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 16/23
  2. 4/39
  3. 16/23

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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