श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय
श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।1।।
भगवान श्रीकृष्ण ने कह– मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान को दिया और विवस्वान ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया।
भावानुवाद- इस चतुर्थ अध्याय में श्रीभगवान् ने अपने आविर्भाव का कारण, अपने जन्म-कर्म की नित्यता और ब्रह्मयज्ञादि ज्ञान के उत्कर्ष का वर्णन किया है।
इन दो अध्यायों में ‘इमम्’ इत्यादि से निष्काम कर्म के साध्य ज्ञानयोग की प्रशंसा कर रहे हैं।।1।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
प्रत्येक मनवन्तर में स्वायम्भुवादि मनु का आविर्भाव होने पर भी इस वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में मनु के जनक सूर्य इस ज्ञानयोग के प्रथम उपदेश-पात्र हैं-यह बताकर श्रीभगवान् ने साम्प्रदायिक धारा की अवतारणा की है। बिना साम्प्रदायिक धारा या आम्नाय परम्परा के शुद्ध ज्ञानतत्त्व अथवा भक्तितत्त्व का जगत् में प्रकाश नहीं होता। साम्प्रदायिक धारा के द्वारा विषय का गुरुत्व, प्राचीनत्व और महत्त्व विशेष रूप से प्रमाणित होता है। जन समाज में प्राचीन साम्प्रदायिक धारा के प्रति श्रद्धा और भक्ति भी परिलक्षित होती है। सम्यक रूप से अर्थात् पूर्णरूप से भगवत्-तत्त्व को प्रदान करने वाली गुरु-परम्परा की धारा को आम्नाय अथवा सम्प्रदाय कहते हैं। सम्प्रदायविहीन मन्त्र निष्फल होते हैं, इसलिए कलिकाल में चार वैष्णव सम्प्रदाय हैं-श्री, ब्रह्म, रुद्र और सनक। सभी सम्प्रदायों के मूल उद्गम स्थान श्रीकृष्ण हैं। इन श्रीकृष्ण से ही भगवत्-तत्त्व की धारा जगत् में प्रवाहित होती है-‘धर्म तु साक्षात् भगवत्प्रणीतम्’ [1]
भगवान श्रीकृष्ण ने सर्वप्रथम विवस्वान (सूर्य) को गीता में उल्लिखित ज्ञान का उपदेश दिया। सूर्य ने इसे मनु को दिया और मनु ने इक्ष्वाकु को इस दिव्य ज्ञान का संदेश दिया। अतः यह प्राचीन एवं विश्वसनीय धारा या सम्प्रदाय है, जिसमें अब तक यह दिव्य-मान संरक्षित है। बीच-बीच में छिन्न-भिन्न होने पर यह ज्ञान भगवत्-व्यवस्था से पुनः इस जगतीतल में प्रकट होता है। इसी गुरु-परम्परा की धारा में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर, श्रीबलदेव विद्याभूषणादि महाभागवतों ने इस दिव्यज्ञान की अनुभूतिकर इस दिव्य ज्ञान की व्याख्याकर जनसाधारण में इसका प्रचार किया है। इस परम्परा-धारा में अभिषिक्त हुए बिना जड़-विद्या में पारंगत व्यक्ति भी गीताशास्त्र का यथार्थ तात्पर्य कदापि अनुभव नहीं कर सकता, इसलिए ऐसे स्वयम्भू व्याख्याताओं से बचने की चेष्टा करनी चाहिए, अन्यथा गीता के यथार्थ तत्त्व की उपलब्धि नहीं हो सकती। जिस प्रकार दूध पवित्र एवं पुष्टि कारक होने पर भी सर्प के द्वारा उच्छिष्ट हो जाने पर विष का कार्य करता है, उसी प्रकार हरि कथा जगत् को परम पवित्र करने वाली होने पर भी देहात्म अभिमानयुक्त एवं मायावादी आदि अवैष्णवों के मुख से उच्चरित होने पर विनाश का ही कारण होती है। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने भी इस विषय में ऐसा ही कहा है-‘मायावादी भाष्य सुनिले हय सर्वनाश’।।1।।
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