श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 207

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तम अध्याय

श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥

श्रीभगवान ने कहा- हे पार्थ ! मुझमें आसक्तचित्त तथा मेरे परायण होकर योगानुष्ठान करते-करते नि:सन्देह जिस प्रकार मुझे सम्म्पूर्णरूप से जानोगे, उसे श्रवण करो॥1॥

भावानुवाद- मैं कब श्रीमनचैतन्यमहाप्रभु के श्रीचरणों का आश्रय प्राप्त करूँगा, जो कि नित्य आनन्द के निकेतन हैं और कृपा के सागर हैं तथा भुक्ति और मुक्ति के साधनों का परित्यागकर भक्तिपथ का अवलम्बन कर प्रेमसुखा का अधिकारी होऊँगा? सप्तम अधय में भजनीय श्रीकृष्ण के ऐश्वर्यसमूह और भजनशील तथा अभजनशील के भेद से चार प्रकार के उपासकों के सम्बन्ध में बताया गया है।

प्रथम छह अध्यायों में अन्तःकरण की शुद्धि के लिए निष्काम कर्म की अपेक्षा रखने वाले मोक्षफलदायी ज्ञान और योग के विषय में बताया गया। अब इन दूसरे छह अध्यायों में कर्म-ज्ञानादि से मिश्र श्रवण से तथा निष्काम और सकाम कर्म से प्राप्य सालोक्यादि एवं प्रमुखरूप से कर्म-ज्ञानादि से निरपेक्ष प्रेमवत् पार्षत्व लक्षण युक्त मुक्तिफलप्रदाता भक्तियोग का वर्णन किया जाएगा। श्रीमद्भागवत [1]में भी कथित है-‘यत् कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत्’ और ‘सर्वम् वान्छति’ अर्थात् कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योग, दानादि समस्त शुभकर्मों से जो भी फल प्राप्त होते हैं, मेरे भक्त भक्तियोग के द्वारा अनायास ही उन समस्त फलों को प्राप्त कर लेते हैं यदि वे स्वर्ग अपवर्ग और वैकुण्ठादि लोकों को भी चाहते हैं, तो उसे भी वे अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं। उन उक्तियों से यह स्पष्ट है कि भक्ति परम स्वतन्त्र है और अन्यान्य साधनों के न करने पर भी उनके फलों को देने में समर्थ और सुलभ है, तथापि यह भक्तियोग सर्वदुष्कर है।

श्वेताश्वतर उपनिषद[2] में कथित है-‘तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति’ अर्थात् उसको जानकर अर्थात् ज्ञान से मृत्यु को अतिक्रम किया जा सकता है। अतः यदि संशय हो कि ज्ञान के बिना केवल भक्ति से मोक्ष की संभावना ही कहाँ है तो इसके उत्तर में कहते हैं-इस प्रकार की आपत्ति मत करो; तमेव-‘तत्’ पदार्थ (परमात्मा) को ही जानकर अर्थात् साक्षात् अनुभवकर मृत्यु को पार किया जा सकता है। केवल ‘त्वम्’ पदार्थ अर्थात् जीवात्मा या प्रकृति को या वस्तुमात्र को जानकर नहीं-यही इस श्रुति का तात्पर्य है। जिस प्रकार मिश्री या शक्कर के रस को ग्रहण करने में रसना ही कारण है, चक्षु, कर्णादि नहीं, उसी प्रकार भक्ति ही परब्रह्म के आस्वादन अर्थात् उपलब्धि का कारण है। भक्ति के गुणातीत होने के कारण भक्ति के द्वारा ही गुणातीत ब्रह्म की उपलब्धि सम्भव है, न कि देहादि से अतिरिक्त सात्त्विक आत्मज्ञान द्वारा। ‘भक्त्याऽहमेकया ग्राह्यः’ [3] अर्थात् मैं एकमात्र भक्ति के द्वारा ही प्राप्य हूँ एवं “भक्त्या.....तत्त्वतः” [4] अर्थात् मेरा जो स्वरूप है, जीव से एकमात्र भक्ति के द्वारा ही विशेषरूप् से जान सकता है-इन वाक्यों के द्वारा मैं सविशेष का प्रतिपादन करूँगा। मुक्ति साधन के रूप में ज्ञान और योग प्रसिद्ध हैं, परन्तु इनमें स्थित गुणीभूता भक्ति के प्रभाव से ही ऐसा सम्भव होता है। भक्तिरहित ज्ञान औश्र योग कोई भी फल देने में असमर्थ हैं।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11/20/32-33
  2. 3/8
  3. श्रीमद्भा. 11/14/21
  4. गीता 18/55

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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