श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अष्टादश अध्याय
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषत: कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत् सात्त्विकमुच्यते ॥23॥
जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभियान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो, वह सात्त्विक कहा जाता है ॥23॥
भावानुवाद- पहले तीन प्रकार का ज्ञान बताया गया, अब तीन प्रकार का कर्म बताया जा रहा है। शास्त्रों में जिसे नित्य कर्म कहा गया है, उसे संगरहित अर्थात अभिनिवेशरहित होकर किया जाय, अतएव उसके प्रति राग-द्वेष की भावना न हो, वह कर्म सात्त्विक है और कर्त्ता जिस कर्म को फल की कामना से रहित होकर करता है, वह कर्म सात्त्विक है।।23।।
श्लोक।।24।।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुन: ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥24॥
परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है ॥24॥
भावानुवाद- ‘कमेप्सुना’ का अर्थ है- अल्प अहंकारयुक्त तथा ‘साहंकरेण’ का अर्थ है- अति अहंकारयुक्त।।24।।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥25॥
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचार कर केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है ॥25॥
भावानुवाद- ‘अनुबन्ध’-‘अनु’ अर्थात कर्म को करने के बाद आने वाले भविष्य में, ‘बन्ध’ अर्थात् राजदस्यु और यमदूत आदि के द्वारा बन्धन। अतः भविष्य में आने वाले क्लेश, धर्म, ज्ञान आदि का नाश, आत्मनाश- इन सबकी आलोचना नहीं कर मोहवशतः जो केवल व्यावहारिक पुरुषमात्र का कर्म आरम्भ किया जाता है, वह तामसिक होता है।।25।।
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