श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
त्रयोदश अध्याय
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
जिस प्रकार एक ही सूर्य समग्र जगत् को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आत्मा देह के एक स्थान में अवस्थित होकर सम्पूर्ण देह को प्रकाशित अर्थात चेतन धर्म से युक्त करता है। ब्रह्मसूत्र में भी ऐसा देखा जाता है-‘गुणाद्वालोकवत्’।[1] जीवात्मा अणु होने पर भी चिद्गुण द्वारा सारे शरीर में व्याप्त रहता है। यहाँ श्रील चक्रवर्ती ठाकुर ने ‘क्षेत्री’ शब्द से परमात्मा को निर्देशित किया है, कयोंकि परमात्मा ही सम्पूर्ण क्षेत्रज्ञ हैं, जीव आंशिक क्षेत्रज्ञ है। चित्-जीव एक-एक शरीर का क्षेत्रज्ञ है, किन्तु परमेश्वर एक ही समय में सभी क्षेत्रों के सम्पूर्ण क्षेत्रज्ञ हैं।।34।।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षञ्च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥35॥
इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान-नेत्रों द्वारा तत्त्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्मा परमात्मा को प्राप्त होते हैं॥35॥
भावानुवाद- यहाँ अध्याय के तात्पर्य का उपसंहार कर रहे हैं-जो क्षेत्र के साथ ‘क्षेत्रयज्ञोः’-जीवात्मा और परमात्मा को जानते हैं तथा जिस प्रकार प्रकृति से प्राणियों का मोक्ष हो सकता है, उस ध्यानादि उपाय को जानते हैं, वे श्रेष्ठ स्थान प्राप्त करते हैं।।35।।
दोनों क्षेत्रज्ञों में से क्षेत्र-धर्मभोगी जीवात्मा बद्ध होेता है एवं वही ज्ञान के उदय से मुक्त होता है-यही इस तेरहवें अध्याय में निरूपित हुआ है।
श्रीमद्भगवद्गीता के त्रयोदश अध्याय की साधुजनसम्मता भक्तानन्ददायिनी सारार्थवर्षिणी टीका समाप्त।
श्रीमद्भगवद्गीता के त्रयोदश अध्याय की सारार्थवर्षिणी टीका का हिन्दी अनुवाद समाप्त।
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