श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 428

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
त्रयोदश अध्याय

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

इस श्लोक में इस विषय का उपसंहार करते हुए कह रहे हैं कि बुद्धिमान मनुष्य को शरीर, शरीर के ज्ञाता आत्मा तथा आत्मा के सखा सम्पूर्ण क्षेत्रज्ञ परमात्मा के वैशिष्ट्य को भलीभाँति समझना चाहिए। जो लोग ऐसा अनुभव करते हैं, वे परम गति को प्राप्त होते हैं।

श्रद्धालु व्यक्तियों को सर्वप्रथम तत्त्वदर्शी भक्तों का संग करना उचित है। उनके संग में महाप्रभावशाली हरिकथा का श्रवण करने पर उन्हें भगवत्-तत्त्व, जीव-तत्त्व, माया-तत्त्व तथा भक्ति-तत्त्व का अनायास ही ज्ञान हो जाता है। तत्पश्चात उनकी देहात्मबुद्धि दूर होनेपर अन्त में वे परम गति प्राप्त करते हैं।

“जड़ा-प्रकुति के समस्त कार्य ही ‘क्षेत्र’ हैं। परमात्मा और आत्मारूप द्विविध तत्त्वात्मक आत्मतत्त्व ही ‘क्षेत्रज्ञ’ हैं। जो व्यक्ति इस अध्याय में वर्णित प्रणाली के अनुसार ज्ञान-चक्षु द्वारा क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के भेद एवं समस्त भूतों के जड़निष्ट प्रवृत्ति के मोक्ष से अवगत होते हैं, वे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ से परतत्त्व जो भगवान् हैं, उनसे अनायास अवगत होते हैं।“-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।35।।

श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायणकृत श्रीमद्भगवद्गीता के त्रयोदश अध्याय की सारार्थवर्षिणी-प्रकाशिका-वृत्ति समाप्त।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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