श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
त्रयोदश अध्याय
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥33॥
जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता ॥33॥
भावानुवाद- यहाँ दृष्टान्त देते हुए कह रहे हैं-‘यथा सर्वत्र’ अर्थात् कीचड़ इत्यादि में अवस्थित आकाश असंगवशतः कीचड़ इत्यादि से लिप्त अथवा संयुक्त नहीं होता, उसी प्रकार परमात्मा देह से सम्बन्धित गुण-दोष से लिप्त नहीं होते।।33।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
जिस प्रकार आकाश सर्वगत होने पर भी निसंग अर्थात् निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार ब्रह्मभाव-सम्पन्न शुद्ध जीव भी देह में अवस्थित रहने पर भी देह धर्म में लिप्त नहीं होता, वह उससे सदा निर्लिप्त रहता है।।33।।
यथा प्रकाशयत्येक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि: ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥34॥
हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है ॥33॥
भावानुवाद-प्रकाशत्व के कारण प्रकाश्य वस्तु के धर्म से युक्त नहीं होते हैं, इसे दृष्टान्तसहित कहते हैं-जिस प्रकार सूर्य प्रकाशक है, किन्तु प्रकाशित होने योग्य वस्तु के धर्म से युक्त नहीं होता, उसी प्रकार ‘क्षेत्री’-परमात्मा भी ‘क्षेत्र’-शरीर के धर्म से युक्त नहीं होते।
कठोपनिषद् में भी कथित है-
‘सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः।।’[1]
अर्थात्, जिस प्रकार सूर्य सबके चक्षुस्वरूप होकर भी किसी के चक्षु के दोष अथवा किसी बाह्म दोष से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार एक ही परमात्मा सर्वभूतों में अवस्थित होकर भी लोगों के सुख-दुःख के भागी नहीं होते।।34।।
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