वियोग होते ही प्राण-त्याग,
पूर्ण प्रेम का परिचायक है।
तो हमारे प्रेम में अवश्य ही कुछ कमी प्रतीत होती है,
तभी तो प्राण नहीं निकलते।
तब तो हमसे मछलियाँ भी भली हैं।
किंतु हमारे प्राण, शरीर तथा श्रृंगार आदि
सब कन्हैया के लिये ही हैं,
हम प्राण त्याग दें
और उन्हें दुःख हो तब?
जब प्राण मेरे नहीं
तो उसे त्यागने का मुझे क्या अधिकार है?
मछली से मैं ही अच्छी हूँ।
किंतु....................
हाय राम, फिर वही किंतु।
किससे पूछूँ!
कौन बताये,
मैं भली या मछली?
(नेत्र बंद हो जाते हैं)