मनमोहन!
मुझे वे दिन स्मरण आते हैं,
जब मेरे विवाह की चर्चा चल रही थी।
जब सखियों ने सुना कि
वृन्दावन के किसी गोप से मेरा सम्बन्ध होने जा रहा है,
तो नित्य ही आकर छेड़ने लगीं।
नटवर!
तुम्हारी रसिकता की दुहाई
चारोगंग ओर फिर चुकी थी,
वंशी के जादू की कहानी
दूर-दूर के घरों में भी
कही जाती थी।
तुम्हारी साँवली-सलोनी मूर्ति की प्रशंसा
कहाँ नहीं होती थी!
तुम्हारा चोरी का स्वभाव तो सब जानते ही थे,
व्रजांगनाओं से तुम्हारा बरबस कर उगाहना भी
किसी से छिपा न था।
कदाचित् ही कोई ऐसा रहा हो,
जो तुम्हारे इस कर का रहस्य न समझता हो।
रासविहारी!