बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 44

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

8. इस मक्खन का क्या करूँ?

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प्यारे माखनचोर!
तुम यहाँ होते तो भला, इतना मक्खन इकट्ठा होने पाता?
सास जी सहेज गयी थीं कि
मक्खन इकट्ठा हो जाय तो घी बना लेना।
किंतु क्या कहूँ,
मक्खन तो किसी तरह निकाल लेती हूँ,
अब इसका घी कौन बनावे।
घी तो अब बनने लगा है।
पहले तो मक्खन बनते ही साफ हो जाता था,
फिर घी कहाँ से बनता।
मक्खन बनाने तक का अभ्यास तो काफी है,
और उतना काम अब भी कर लेती हूँ,
किंतु यह घी बनाने वाला नया काम करते समय
न जाने कहाँ का आलस्य छा जाता है।
रोज सोचती हूँ कि चलूँ, घी बना लूँ,
नहीं तो सास जी आकर बिगड़ेंगी,
किंतु धीरे-धीरे इतना मक्खन इकट्ठा हो गया और
घी न बन सका।

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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