भाई! जल्दी का काम ही ऐसा होता है।
अब क्या हो सकता है,
जैसा है, वैसा ही रहेगा।
वेष-भूषा के फेर में पड़ जाऊँगी
तो जाना कठिन हो जायेगा।
इसकी ओर ध्यान ही न देना चाहिये।
अपने मनमोहन का स्मरण क्यों न करूँ?
प्राणप्यारे! देखो, मैं आ रही हूँ;
अपना सब कुछ छोड़कर आ रही हूँ।
ब्रज के लोग सबसे अधिक बावरी मुझको ही समझते थे,
किंतु मैं तो अपने को सबसे सयानी समझती हूँ।
तुम्हारे बिना रहना कैसा?
ये कुंज जल जायँ, लताएँ कुम्हला जायें,
वृक्ष उखड़कर गिर पड़ें, जमुना सूख जाये,
तुम्हारे न रहने पर इन सबका मूल्य ही क्या?
इनका उपयोग ही क्या?
वृन्दावन से तो निकल आयी,
अब उतना डर नहीं है।
अहा! आज आनन्द ही आनन्द है।
गाते हुए चलने से मार्ग जल्दी कटेगा