बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 126

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

19. मैं तो चली पिया की डागरिया

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भाई! जल्दी का काम ही ऐसा होता है।
अब क्या हो सकता है,
जैसा है, वैसा ही रहेगा।
वेष-भूषा के फेर में पड़ जाऊँगी
तो जाना कठिन हो जायेगा।
इसकी ओर ध्यान ही न देना चाहिये।
अपने मनमोहन का स्मरण क्यों न करूँ?
प्राणप्यारे! देखो, मैं आ रही हूँ;
अपना सब कुछ छोड़कर आ रही हूँ।
ब्रज के लोग सबसे अधिक बावरी मुझको ही समझते थे,
किंतु मैं तो अपने को सबसे सयानी समझती हूँ।
तुम्हारे बिना रहना कैसा?
ये कुंज जल जायँ, लताएँ कुम्हला जायें,
वृक्ष उखड़कर गिर पड़ें, जमुना सूख जाये,
तुम्हारे न रहने पर इन सबका मूल्य ही क्या?
इनका उपयोग ही क्या?
वृन्दावन से तो निकल आयी,
अब उतना डर नहीं है।
अहा! आज आनन्द ही आनन्द है।
गाते हुए चलने से मार्ग जल्दी कटेगा

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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