बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 114

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

18. बस, एक झलक

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तुम कैसे कठोर हो, माधव!
जिन नेत्रों की इतनी प्रशंसा करते थे,
जिनमें स्वयं काजल लगाते थे,
जिनमें कभी छोटी-सी किरकिरी पड़ जाने पर
तुम्हारे नेत्र सजल हो जाते थे,
अपने पीताम्बर से जब तक उसे निकाल न लेते,
चैन न लेते थे।
कभी-कभी ऐसी टकटकी लगा देते थे
मानो इन नेत्रों को नेत्रों द्वारा खींचकर हृदय में बिठा लोगे।
हाय, उन्हीं नेत्रों को आज तुमने इस तरह भुला दिया?
मेरे इन नेत्रों को देखो,
अब भी इनमें तुम्हारी ही मूर्ति बसी है।
किसी भी दूसरे रूप पर ये नहीं ठहरते।
अपने में बसे हुए रूप को ही प्रत्यक्ष देखना चाहते हैं।

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क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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