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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
षष्ठम अध्यायअब भगवान् बताते हैं कि योग में बाधक क्या है और योग में साधक क्या है? नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत: । ‘नात्यश्नस्तु योगोस्ति’- ज्यादा भोजन करने से योगाभ्यास नहीं होगा। अन्न में नशा होता है। जौ में नशा होता है, गेहूँ में भी नशा होता है और चने में भी नशा होता है। इनको सड़ाकर देखो तब मालूम पड़ जायेगा। इसलिए मात्रा से अधिक भोजन करने पर उसका जो परिपाक होता है, उसमें मद की, नशे की उत्पत्ति होजाती है। यदि कहो कि अच्छा, हम खाना ही छोड़ दें तो? नहीं, यदि खाना छोड़ दोगे तो शरीर को जो शक्ति चाहिए, वह नहीं मिलेगी। इसलिए शरीर को शक्ति मिले, लेकिन नशा न हो, इस हिसाब से खाना चाहिए। ‘न शं यया सा नशा’- नशा में शान्ति नहीं है। कबीरदास कहते हैं कि- नसा पीकर धरे ध्यान। गिरही होकर कथे ग्यान।। तो भाई, नशा नहीं होना चाहिए, किन्तु शरीर में शक्ति बनी रहनी चाहिए। ज्यादा सोना नहीं चाहिए, नहीं तो आलस्य, निद्रा और प्रमाद बढ़ जायेगा। ज्याद सोने वाले का पेट बढ़ जाता है। जो खा-पीकर सो जाते हैं, उनका पेट बढ़ जाता है। भोजन करके ज्यादा बैठने से भी पेट बढ़ता है। पर यदि कहो कि हम सोयेंगे ही नहीं तो जब ध्यान करने बैठोगे तब नींद चढ़ बैठेगी, मन एकाग्र नहीं होगा, निद्रा आलस्य प्रमाद आ जायेगा। इसलिए ज्यादा खाना, बिलकुल न खाना ज्यादा सोना और बिलकुल न सोना- ये योग के बाधक हैं। अब योग के साधक क्या हैं, यह देखो- युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । ‘युक्ताहारविहारस्य’- योगी का आहार-विहार युक्त होना चाहिए। युक्त का अर्थ परिमित है। श्रीमद्भागवत में आया है कि ‘पथ्यं हितं मितम्’ भोजन शरीर के लिए पथ्य हो, हितकारी हो और मित हो। मित माने कम नहीं, ज्यादा नहीं, भोजन की मात्रा बराबर हो। यह नहीं कि कभी ज्यादा तो कभी कम और कभी इतना और कभी उतना। एक बात और है। यदि आप अपने हाथ से पकाते हो तो पकाने में आसान होना चाहिए। यह नहीं, कि पकाने में घंटों लगें। पंजाबी लोग सरसों का साग बनाते हैं तो छह-सात घंटे लगाते हैं। दक्षिणी लोग इडली दोसा बनाते हैं तो पहले दिन से ही उसकी सफाई और पिसाई करने लगते हैं। कश्मीर में जो रोटी बनाते हैं, उसके लिए खमीर उठाने में घंटों लगते हैं। ऐसा समय-साध्य भोजन नहीं बनाना चाहिए। दलिया, खिचड़ी जैसी कोई चीज चढ़ा दी। वह पक रही है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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