गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 26

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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द्वितीय अध्याय

संजय ने अर्जुन की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा कि उसके हृदय में स्वजनों के प्रति कृपा का आवेश हुआ है। सज्जन लोग दूसरे के दुर्भाव को भी सद्भाव ही बताते हैं। संजय का कहना है कि अर्जुन की आँकों से आँसू बह रहे हैं और उसके हृदय में विषाद है। ‘कृपयाविष्टम्[1]- कहना उसके मानसिक विषाद का सूचक है, ‘अश्रुपूर्ण- कुलेक्षणम्’- यह उसके शारीरि विषाद का सूचक है और ‘विषीदन्तम्’- यह उसके वाचिक विषाद का सूचक है। मतलब यह कि अर्जुन के जीवन में कायिक, वाचिक और मानसिक तीनों ही प्रकार के विषाद प्रकट हो गये हैं।

लेकिन हमारे ये मधुसूदनजी महाराज किसी का लिहाज करने वाले नहीं है। क्योंकि जहाँ ये ब्रह्मरूप से सृष्टि का निर्माण करके विष्णुरूप से पालन पोषण करते हैं वहाँ रुद्र बनकर सारी सृष्टि का संहार भी करते हैं। जिसने बनाया और पाला वह बिगाड़ भी तो सकता है। मधुसूदन ऐसे ही हैं। इस समय मधु कहाँ है? मधु अर्जुन के हृदय में है। जब मधुसूदन ने देखा कि अर्जुन के हृदय में स्वजनों के प्रति मिठास का भाव आ गया है तब वे बोले कि उसके अपने भाई बन्धु, सगे संबंधी तो मीठे-मीठे लगते हैं, किंतु उसके रथ पर बैठा हुआ मैं स्वयं मधुसूदन मीठा नहीं लगता। इसलिए भगवान् ने डाँटकर कहा-

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
'अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुंन॥'[2]

देखो, किसी के मन में ब्रह्मज्ञान की जिज्ञासा हो और वह कहे कि जब ब्रह्मज्ञान होने वाला होगा, तब हो जाएगा, जब भगवान् देंगे तब ब्रह्मज्ञान मिल जाएगा और जब प्रारब्ध में होगा तब ब्रह्मज्ञान मिलेगा तो यह उसकी मूर्खता है कि नहीं? ये तीनों ही बावकूफी की बातें हैं। इसका अर्थ है कि उसके हृदय में तीव्र जिज्ञासा नहीं है। यदि तीव्र जिज्ञासा होती तो वह हाथ-पाँव पीटता, गंगा-किनारे जाता, हिमालय पर चढ़ता और ऋषि मुनियों का सत्संग करता। यदि उसके मन में तीव्र जिज्ञासा होती तो वह सत्संग में जाकर अपने हृदय में उठने वाले प्रश्नों का समाधान करवाता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1
  2. 2

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गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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