गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 384

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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अष्टम अध्याय

अब प्रश्न मिल गया है अर्जुन को-

अर्जुन उवाच

किं तद्ब्रह्मा किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम् ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥1
अधियज्ञ: कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभि: ॥[1]

अर्जुन पूछते हैं कि यह ब्रह्म नाम की चीज क्या है? आप जानते हैं कि यह व्रजभूमि तो बड़ी विचित्र है। महात्मा लोग, देखो, नाराज मत होना। व्रजवासी तो बहुत भोले होते हैं। एक कुएँ पर कुछ ग्वालिनें पानी भर रही थीं। वहाँ कई संन्यासी महात्मा लोग जाकर बैठ गये और आपस में घटाकाश-मठाकाश की चर्चा करने लगे। बोले कि ‘निरतिशयं बृहत् ब्रह्म, परिच्छेदसामान्यात्यन्याभावोपलक्षितत्वं ब्रह्मत्वम्’- अर्थात् ब्रह्म परिच्छेद सामान्य के अत्यन्ताभाव से उपलक्षित है; परिच्छेद- सामान्य माने किस्म-किस्म के टुकड़े, किस्म-किस्म की परिच्छिन्नताएँ; तरह-तरह के जो कतरे हैं- मिट्टी के कतरे, पानी के कतरे, आग के कतरे, देश के कतरे, काल के कतरे, वस्तु के कतरे- उन कतरों को बोलते हैं परिच्छेद-सामान्य। इनका जो अत्यन्ताभाव है और वह अत्यन्ताभाव जिसका लक्षण नहीं, उपलक्षण है माने तटस्थ लक्षण है; लक्ष्य के साथ लगे बिना दूर ही से दिखाता है- वह है ब्रह्म

जब संन्यासी महात्मा लोग इस प्रकार की चर्चा करने लगे तब बेचारी गाँव की गँवार ग्वालिनें पूछ बैठीं की अरि सहेली, ये साधु लोग जिस ब्रह्म की बात कर रहे हैं, वह क्या होता है? बोली कि अरी सखी, कोई ब्रह्म हमारे साँवरे-सलोने श्यामसुंदर का स्वरूप हो या कोई रिश्तेदार-नातेदार हो या कुछ सालावाला लगता हो, तब तो हम बतायें कि वह कौन है? यहाँ बिना श्यामसुंदर से संबंध हुए ब्रह्म का नाम कौन लेगा?

तो अर्जुन ने पूछा कि बाबा, वह ब्रह्म कौन है? देखो, पहले अर्जुन ने ब्रह्म को परोक्ष देखा था, फिर ब्रह्म को प्रत्यक्ष देखा और फिर ब्रह्म अपरोक्ष हो गया। यह बात हम आपको गीता में सुनायेंगे। यहाँ परोक्ष ब्रह्म ही है जिसके बारे में अर्जुन का प्रश्न है- ‘किं तद् ब्रह्म?’ यदि पूछो को प्रत्यक्ष कौन सा है तो गीता के दसवें अध्याय का बारहवाँ श्लोक देखो- ‘परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।’ वह प्रत्यक्ष ब्रह्म है। इसी तरह अपरोक्ष ब्रह्म भी है गीता में। तो अर्जुन का प्रश्न है कि वह ब्रह्म क्या है? आध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? यहाँ पुरुषोत्तम कहने का अभिप्राय है कि आप पर मेरी पूरी श्रद्धा है। आप जो बतायेंगे उसे मैं समझने की कोशिश करूँगा और बिना श्रद्धा के, बिना प्रेम के मैं किसी से सुनूँगा तो वह जल्दी दिल में बैठेगा ही नहीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2

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गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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