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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
चतुर्दश अध्यायअब तेरहवाँ अध्याय समाप्त होने के बाद भगवान् ने कहा कि आओ अर्जुन, मैं अपनी बात फिर से कह दूँ। बात एक ही होती है, लेकिन वह तरह-तरह से कह दी जाती है। जिस दिन बात कहने की नयी प्रक्रिया न सूझे, उस दिन समझ लो कि प्रतिभा कुछ भोथर हो गयी है। सिद्धांत एक और उसके प्रतिपादन की नयी-नयी युक्ति, नयी-नयी प्रक्रिया, नया-नया ढंग, नयी-नयी शैली! यही प्रतिभाशाली पुरुष का लक्षण है। नहीं तो जैसे घड़े को देखने वाला घड़े से न्यारा होता है, वैसे ही देहादि को देखने वाला देहादि से न्यारा होता है- यह ‘विचार-चंद्रोदय में जो पढ़ा था, वह जिंदगी भर चल रहा है। अरे भाई, कब तक न्यारे रहोगे? तुम देहादि से न्यारे हो, पर जब तुम ब्रह्म हो तब तुमसे न्यारे यह देहादि कहाँ हैं? यह भी तो देखो! तुमने व्यतिरेक तो याद कर लिया पर अन्वय का पता ही नहीं है, सर्वात्म भाव नहीं है, सर्वात्म-बोध नहीं है।’ तो एक ही सनातन सिद्धान्त का हम निरूपण करते हैं। वह प्रत्यक् चैतन्याभिन्न ब्रह्म तत्व के सिवाय और कोई नहीं है। सनातन विषय है, सनातन वस्तु है। उसी को बाबाजी सुनाते हैं कि आत्मा ब्रह्म है और ब्रह्म के सिवाय और कुछ है नहीं। हाँ, सुनाते तो वहीं है, परंतु सिद्धांत विज्ञान में ‘यत्र प्रकाश्या विषया सनातना यत्र प्रकारोऽभिनवः प्रदर्शने’- इस बात को समझाने के लिए प्रकार नया है, ढंग नया है, शैली नयी है। शैली पुरानी पड़ जाती है, पर सिद्धांत कभी पुराना पड़ता ही नहीं है। श्रीभगवानुवाच- तो, भगवान् बताते हैं कि जो कुछ उत्पन्न होता है वह सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अध्यास से है, इसलिए आओ ‘भूयः’- फिर से उस पर तत्व का निरूपण करें। ठीक है क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ ईश्वर के परतन्त्र हैं। सांख्य में न प्रकृति है, एक क्षेत्र है और एक क्षेत्रज्ञ है, पर दोनों में से कोई ईश्वर के अधीन नहीं है। जब दों स्वतंत्र हैं तब कभी न कभी दोनों में भिड़न्त होगी। क्योंकि स्वतंत्र परतं6 तो भिड़ ही जाते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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