गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 651

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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अष्टादश अध्याय

संपूर्ण गीता में त्याग, संन्यास और तत्पदार्थ- त्वंपदार्थ के साक्षात्कार तथा दोनों के ऐक्य-बोध के लिए जो साधन बताये गये हैं, उन सबका सारे गीतार्थ का सार-संक्षेप उसके इस अठारहवें अध्याय में प्रस्तुत है। महाभारत में जो अठारह पर्व हैं, उनमें से सत्रह पर्व तो अंतःकरण के सत्रह सूक्ष्म तत्वो के लिए होते हैं और अठारहवाँ पर्व अपर्व होने पर पर्वपने का उपचार करके परमात्मा के निरूपण के लिए होता है।

अब इस अठारहवें अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन ने जो प्रश्न किया है, उस पर ध्यान दीजिए। आप पहले सुन चुके हैं कि नियत परोक्ष वस्तु का ज्ञान भी बिना शास्त्र के नहीं हो सकता- जैसे स्वर्ग और स्वर्ग का साधन है। वह प्रत्यक्ष, अनुमान से किसी को हो नहीं सकता। आजकल अक्लमन्द लोग यह कहकर कि स्वर्ग ऐसा होता है और उसकी प्राप्ति के ये साधन होते हैं, अपनी बेअकली का ही प्रदर्शन करते हैं। नित्य परोक्ष वस्तु के साथ साध्य-साधन के संबंध का ज्ञान तो शास्त्र के बिना होने का कोई उपाय नहीं है। यह नियम है। नित्य अपरोक्ष होकर भी जो वस्तु अज्ञात है, सामने होने पर भी मालूम नहीं होता है- तो उसे मालूम कराने के लिए प्रत्यक्ष, अनुमान काम नहीं देता है, वाक्य प्रमाण ही काम देता है। आत्मदेव की अद्वितीयता अज्ञात है, दिक्कालावच्छिन्नता अज्ञात है, सजातीय-विजातीय-स्वगत-भेद-शून्यता अज्ञात है और पूर्णता अज्ञात है; किन्तु ये स्वयं नित्य अपरोक्ष हैं। इन नित्य अपरोक्ष आत्मदेव में जो अज्ञातांश है, उसके निवारण के लिए वाक्य के सिवाय और कोई प्रमाण नहीं है। प्रत्यक्ष अनुमानादि से उसकी अज्ञातता निवृत्त नहीं हो सकती।

अब जो वाक्य प्रमाण है, वह श्रद्धा से प्रारंभ होता है। परंतु स्वर्ग-विषयक प्रमाण श्रद्धा संवलित होकर परोक्षतया स्वर्ग का ज्ञान कराता है और शास्त्र प्रमाण श्रद्धा संवलित होकर अपरोक्ष आत्मा की अद्वितीयता का साक्षात्कार कराता है। इसलिए औपनिषद् श्रद्धा अनुभव पर्यवसान है, अनुभव पर्यन्त ही है। उसके बाद न शास्त्र है न श्रद्धा है। स्वर्ग में आजीवन में शास्त्र की और श्रद्धा की आवश्यकता है तथा अपरोक्ष अनुभूति में अनुभूति हो जाने केबाद शास्त्र और श्रद्धा की अपेक्षा नहीं है। यह दोनों का विशेष है।

सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1

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गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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