गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 628

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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सप्तदश अध्याय

अर्जुन उवाच-
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विता: ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तम: ॥[1]

अब प्रश्न उठा कि जो शास्त्र विधि का परित्याग करके स्वच्छन्द आचरण करते हैं उनके लिए तो इस लोक में न सुख है, न सिद्धि है और परमार्थ की प्राप्ति तो बहुत दूर की बात है। परागति माने परमार्थ की प्राप्ति, न लोक, न परलोक, न परमार्थ, न सुख, न सिद्धि, कुछ भी नहीं मिलता, शास्त्रविधि का परित्याग करने वाले को। और जो शास्त्रविधि के अनुसार श्रद्धापूर्वक कर्म करते हैं, उनके बारे में भी निर्णय हो गया कि वे बिलकुल ठीक रास्ते पर हैं। शास्त्र और श्रद्धा दोनों ठीक मार्ग हैं। यदि शास्त्र छूट गया, स्वच्छन्द आचरण आ गया तो यह बुरा है। अब ये ही दो पक्ष हैं कि इसमें कोई तीसरा पक्ष भी है? एक तीसरा पक्ष भी इसमें हो सकता है। वह यह है कि शास्त्रविधि तो छूट जाये, लेकिन श्रद्धा बनी रहे तो? महाराज, मेरी यह बात किसी को पसन्द न हो तो वे मुझे माफ करें। मैं उनसे पहले ही माफी माँग लेता हूँ। यह जो कान चीरकर उसमें पहन लेते हैं उसके संबंध में हम श्रुति-स्मृति-पुराण और शास्त्र की विधि ढूँढ़ने लगें तब तो उसका मिलना बहुत मुश्किल है। परंतु इनके हृदय में अपने सद्गुरु के प्रति, सम्प्रदाय के प्रति जो विशेष श्रद्धा है,उसमें तो कोई संदेह नहीं है। उनकी श्रद्धा की तो प्रशंसा करनी पड़ेगी। परंतु शास्त्र विधि तो उनके संप्रदाय के जो शास्त्र होंगे, उन्हीं में उनकी विधि मिलेगी। जो सामान्य वेद-शास्त्र-पुराण हैं उनमें उनकी विधि मिलना कठिन है। प्रश्न यह है कि उनकी रीति क्या है? यह तीसरा प्रश्न आ गया।

इसका एक दूसरा उदाहरण देखो। संक्रांति का दिन हो, ग्रहण का दिन हो तो शास्त्र-विधि के अनुसार गंगा स्नान करना चाहिए। लेकिन कोई कहे कि देखो भाई, हम शास्त्र तो जानते नहीं। मेरे पिताजी ने, पितामह ने, बड़े प्रेम से पाला है मुझे और समझाया है कि तुम्हारे लिए यह कूआँ अथवा बावड़ी ही गंगा है। यही नर्मदा है, यही गोदावरी है, यही समुद्र है! वह बड़ी श्रद्धा से कहता है मैं तो इसी में स्नान करूंगा। अब शास्त्र-विधि से तो गंगा स्नान का फल उस कूएँ या बावड़ी के स्नान में प्राप्त नहीं है। परंतु पितामह और पिता के प्रति उसके हृदय में जो श्रद्धा है, वह तो सात्विक है। तो उसका क्या होगा?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1

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गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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