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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
सप्तदश अध्यायअर्जुन उवाच- अब प्रश्न उठा कि जो शास्त्र विधि का परित्याग करके स्वच्छन्द आचरण करते हैं उनके लिए तो इस लोक में न सुख है, न सिद्धि है और परमार्थ की प्राप्ति तो बहुत दूर की बात है। परागति माने परमार्थ की प्राप्ति, न लोक, न परलोक, न परमार्थ, न सुख, न सिद्धि, कुछ भी नहीं मिलता, शास्त्रविधि का परित्याग करने वाले को। और जो शास्त्रविधि के अनुसार श्रद्धापूर्वक कर्म करते हैं, उनके बारे में भी निर्णय हो गया कि वे बिलकुल ठीक रास्ते पर हैं। शास्त्र और श्रद्धा दोनों ठीक मार्ग हैं। यदि शास्त्र छूट गया, स्वच्छन्द आचरण आ गया तो यह बुरा है। अब ये ही दो पक्ष हैं कि इसमें कोई तीसरा पक्ष भी है? एक तीसरा पक्ष भी इसमें हो सकता है। वह यह है कि शास्त्रविधि तो छूट जाये, लेकिन श्रद्धा बनी रहे तो? महाराज, मेरी यह बात किसी को पसन्द न हो तो वे मुझे माफ करें। मैं उनसे पहले ही माफी माँग लेता हूँ। यह जो कान चीरकर उसमें पहन लेते हैं उसके संबंध में हम श्रुति-स्मृति-पुराण और शास्त्र की विधि ढूँढ़ने लगें तब तो उसका मिलना बहुत मुश्किल है। परंतु इनके हृदय में अपने सद्गुरु के प्रति, सम्प्रदाय के प्रति जो विशेष श्रद्धा है,उसमें तो कोई संदेह नहीं है। उनकी श्रद्धा की तो प्रशंसा करनी पड़ेगी। परंतु शास्त्र विधि तो उनके संप्रदाय के जो शास्त्र होंगे, उन्हीं में उनकी विधि मिलेगी। जो सामान्य वेद-शास्त्र-पुराण हैं उनमें उनकी विधि मिलना कठिन है। प्रश्न यह है कि उनकी रीति क्या है? यह तीसरा प्रश्न आ गया। इसका एक दूसरा उदाहरण देखो। संक्रांति का दिन हो, ग्रहण का दिन हो तो शास्त्र-विधि के अनुसार गंगा स्नान करना चाहिए। लेकिन कोई कहे कि देखो भाई, हम शास्त्र तो जानते नहीं। मेरे पिताजी ने, पितामह ने, बड़े प्रेम से पाला है मुझे और समझाया है कि तुम्हारे लिए यह कूआँ अथवा बावड़ी ही गंगा है। यही नर्मदा है, यही गोदावरी है, यही समुद्र है! वह बड़ी श्रद्धा से कहता है मैं तो इसी में स्नान करूंगा। अब शास्त्र-विधि से तो गंगा स्नान का फल उस कूएँ या बावड़ी के स्नान में प्राप्त नहीं है। परंतु पितामह और पिता के प्रति उसके हृदय में जो श्रद्धा है, वह तो सात्विक है। तो उसका क्या होगा?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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