गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 27

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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द्वितीय अध्याय

इसलिए भगवान् ने कहा कि- ‘कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्’- यह कस-कसा या मल-कश्मल तेरे हृदय में कहाँ से आ गया? तेरा हृदय मल से भरा हुआ है। यह मेरा, यह मेरा, यह मेरा इस प्रकार मेरा-मेरा करता है और फिर बुद्धिमानी बघारता है? ‘कुतः’ अरे, तुम्हारे जैसे अधिकारी पुरुष में, धर्मात्मा में, धर्मराज युधिष्ठिर के भाई में और सत्व की मूर्ति में कश्मल कहाँ से आ गया? क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है ‘सत्वमेकं द्विधा स्थितम्’- नर- नारायण दोनों भाई-भाई हैं, जैसा मैं हूँ, वैसा ही तू है? तू किसी भी प्रकार से कश्मल का अधिकारी नहीं है। फिर तुम्हारे पास यह कश्मल कहाँ से आ गया? इसके आने का तो कोई कारण ही नहीं है।

देखो, ‘कुतः’ शब्द कारण और प्रयोजन दोनों पर आक्षेप करता है। मतलब यह कि तुम्हारे इस विषाद का न तो कोई मूल कारण है और न प्रयोजन है। इस कश्मल से तुम्हें फायदा भी क्या होगा? न उसमें कोई शुद्ध प्रेरणा है, न लाभ है और आया भी कहाँ? ‘विषमे’- भला उसके आने का स्थान भी तो हो कुछ!

इसको ऐसे समझो कि हम कहीं बैठे हों और गृहस्थ लोग स्त्री-पुरुष हमें प्रणाम करने आते हों तो वह स्थान है। लेकिन हम कहीं जाने के लिए रास्ते में निकलें और एक-एक आदमी पाँव पर सिर रखकर हमें प्रणाम करने लगें तो सौ आदमी के प्रणाम करने में पचास मिनट तो लग ही जायेंगे। इसके अतिरिक्त बार-बार मोटर में ब्रेक लगने से मोटर भी खराब हो जाएगी। इसलिए सब काम यथासमय ही होना चाहिए।

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।[1]

स्थान का अर्थ है ‘युक्तम्’। भगवान् कहते हैं कि उधर शंख बज चुके, इधर शंख बज चुके है, तुम हाथ में धनुष बाण उठा चुके और अब आया है यह कश्मल!

आगे बताते हैं कि यह तीन तरह से विरुद्ध है। एक तो ‘अनार्यजुष्टम्’ है। ‘न अनार्यजुष्टम्’। आर्य पुरुषों ने कभी इस प3कार के कार्पण्य को स्वीकार नहीं किया है। माने यह शिष्टाचार नहीं है, शिष्टाचार के विरुद्ध है। दूसरे यह ‘अस्वर्ग्यम्’ है। इससे परलोक नहीं मिलेगा। अच्छा महाराज, भले ही शिष्टाचार न हो, परलोक भी न मिले, परंतु लोग यह तो कहेंगे कि ओहो! अर्जुन ने राज्य छोड़ दिया, युद्ध बन्द कर दिया और लोगों को मरने से बचा लिया। मेरी बड़ी भारी कीर्ति होगी। बोले कि नहीं, यह ‘अकीर्तिकरम्’ है। इससे लोक में कीर्ति भी नहीं होगी। और भी सुनो-

भयाद्रणादुपरंत मंस्यंते त्वां महारथा:।
येषां च त्वं बहुमतो भुत्वा यास्यसि लाघवम्॥[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.36
  2. 35

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गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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