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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
द्वितीय अध्यायइससे लोक में लाभ है, न परलोक में लाभ है और न यह शिष्टाचार है, अर्थात् न शिष्ट संप्रदाय से अनुमोदित है। अतः इससे अंतःकरण शुद्धि भी नहीं होगी। देखो अंतःकरण की शुद्धि भी मनमाने साधन से नहीं होती, शिष्टानुमोदित साधन से अंतःकरण की शुद्धि होती है। जो लोग अपने मन से सोचकर कि यह बहुत बढ़िया है और इस प्रकार वस्तुनिष्ठ गुणधर्म का अभ्यास करके अंतःकरण की शुद्धि करना चाहते हैं, उनकी शुद्धि ही नहीं होती। अंतःकरण की अशुद्धि शास्त्र से ही ज्ञात होती है और शास्त्रोक्त उपाय से ही उसकी निवृत्ति होती है, मनमाने ढंग से नहीं। इसलिए अर्जुन तुम्हारा यह कार्पण्य शिष्टानुमोदित नहीं है, स्वर्ग प्रापक नहीं है और लौकिक लाभदायक भी नहीं है। शिष्टानुमोदित न होने से मोक्ष का साधन नहीं है, शास्त्रोक्त न होने से, विहित न होने से स्वर्ग का प्रापक नहीं है और लोक विरुद्ध होने से कीर्ति कारक नहीं है। फिर तुम यह क्या करने जा रहे हो? क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। देखो, जब मैं बच्चा था तब अपने एक स्वामी जी से मैंने गृहस्थाश्रम में ही श्रीकृष्ण मंत्र की दीक्षा ली थी। एक दिन मेरे मन में विकार आ गया और मैंने उनको चिट्ठी में लिखकर भेज दिया कि अब हमसे नहीं होता- इतना न्यास, इतना नहाना, इतना धोना, इतनी सेवा, इतनी पूजा- यह सब मेरे वश की बात नहीं है। इस पर उन्होंने यही लिखकर भेजा था कि- एक त्रिदण्डी स्वामी ने भी मुझको ऐसे ही कहा था। मैं उनके पास गया तो उन्होंने मुझे कुछ आसन, प्राणायाम बताये। मैंने कहा कि स्वामीजी यह मुझसे नहीं होगा। इस पर वे बोले कि अरे तू ब्राह्मण है, तू पंडित है, तू जवान है और तेरे मन में ईश्वर प्राप्ति की लालसा भी है। यदि तू नहीं करेगा तो क्या ये सब साधन पशुओं के लिए हैं? देखो, ये जो मन में हैं, इनका पर्दा ढिठाई के साथ फाड़ना चाहिए, डर-डरकर नहीं। क्लीब उसको कहते हैं जो धृष्टता न कर सके, छेड़-छाड़ न कर सके। अरे, इन दोषों को तो छेड़-छाड़कर मारना चाहिए। उनके साथ क्लीबता नहीं करनी चाहिए कि हाय, हम इनको हाथ कैसे लगावें, इनसे कैसे लड़े और इन्हें मारें कैसे? इनको तो यदि ये सोते हों तो जगाकर मारना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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