गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 268

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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पंचम अध्याय

सर्वभूतात्मभूतात्मा’- इसका अर्थ है कि अपने-पराये का भेद नहीं है। यह नहीं कि मैं इसी शरीर की आत्मा हूँ। यदि इसी शरीर की आत्मा बने रहोगे तो क्या होगा? एक सज्जन बोलते थे कि ईश्वर तो परोक्ष ही रहेगा। क्योंकि भाई, ईश्वर परोक्ष क्यों रहेगा? इसीलिए रहेगा कि तुम इसी शरीर को ‘मैं’ करके बैठो हो। तभी तुम्हारी दृष्टि में ईश्वर में परोक्षता है। यदि तुम ऐसा मानोगे कि आकाश ही तुम्हारा शरीर है- तुम चिदाकाश हो तो देखोगे कि ईश्वर की अज्ञात सत्ता नहीं है, ईश्वर परोक्ष नहीं है, बिल्कुल अपरोक्ष है।

आज कोई ईश्वर की व्यापाकता के बारे में पूछ रहे थे। हम ईश्वर में ‘मूर्तसंयोगित्वरूप विभुत्व’- नहीं मानते हैं, जैसा कि नैयायिक लोग, आर्यसमाजी लोग, ईसाई लोग, मुसलमान लोग मानते हैं। हम तो ईश्वर में ‘सर्वोपादानत्व रूप विभुत्व’ मानते हैं। जैसे कंगन में सोना है, घड़े में माटी है, औजार में लोहा है, वैसे ही संसार में सब स्त्री पुरुषो, पेड़-पौधे, मिट्टी-पानी में मूलसत्ता के रूप में, मूल तत्व के रूप में सर्वोपादानत्वेन ईश्वर व्याप्त है।

एक महात्मा हमारे गाँव में चौदह मील दूर गंगा के किनारे रहते थे। मैं उनके पास जाकर उनकी सेवा कर दिया करता। उनकी जात-पाँत का कुछ पता नहीं था। वे नंगे रहते थे। अस्सी-पच्चासी या नब्बे वर्ष की उनकी उम्र थी। मैं उनके पास जाता तो उनकी रसोई बना दिया करता था। वे जब खा लेते थे तब मैं उनका प्रसाद खा लेता था। जब यह बात मेरे गाँव के ब्राह्मणों को मालूम हुई तब वे लोग इकट्ठे हुए और बोले कि बाबा, हमारा यह बालक तुम्हारा जूठा खाता है? तुम बताओ कि तुम्हारा दूध क्या है? तुम किस जात में पैदा हुए हो? इस पर बाबा ने जवाब दिया कि ‘गुरु’ जो चींटी है सो मैं हूँ, जो मच्छर है सो मैं हूँ, और जो पेड़-पौधा है, सो भी मैं ही हूँ। इस उत्तर से हमारे गाँव के ब्राह्मणों को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने बहुत जिद की, तब बाबा ने कहा कि आपलोग यह जानकर क्या करेंगे कि हमारा जन्म कहाँ हुआ, किस कुल में जन्म हुआ, हमने अब तक क्या किया है, किस यूनिवर्सिटी में पढ़ा हूँ और कौन सी डिग्री प्राप्त की है? अरे, न्यायाचार्य वेदान्ताचार्य की उपाधियाँ लिखने के लिए संन्यासी नहीं हुआ जाता है। बी.ए., एम.ए. और डॉक्टर लिखने के लिए भी संन्यासी नहीं हुआ जाता। संन्यासी के लिए कहा गया है कि- ‘आत्मवृत्तं न प्रकाश्यम्’- वह अपने पूर्व चरित्र को प्रकाशित न करे। इसलिए यह समझो कि जो सबका आत्मा है, वही मेरा आत्मा है। चोर-चमार की आत्मा भी मैं ही हूँ। साँप-बिच्छू की आत्मा भी मैं हूँ। मायोपाधिक ईश्वर की परमार्थ स्वरूप आत्मा भी मैं ही हूँ। यह है- ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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