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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
पंचम अध्यायठीक है; ऐसा होता है तो है। लेकिन इसके पीछ जो संशय है, वह कर्म को शुद्ध बनाने में बाधक बनता है। मेरे एक परिचित सेठ हैं। वे लोगों का बड़ा उपकार करते हैं। बाबाजी लोगों को कुँआ बनाने के लिए, प्याऊ लगवाने के लिए, सदाव्रत खुलवाने के लिए पैसे देते हैं। उनको जब मालूम पड़ता है कि मैं उसी तरप जा रहा हूँ, जहाँ उसका कूँआ, प्याऊ अथवा सदाव्रत चलता है, तो वे कहते हैं कि स्वामीजी, आपको कष्ट न हो तो जरा देखते आना कि उधर उस बाबाजी ने कुँआ बनवाया है कि नहीं, प्याऊ या सदाव्रत चलवाया है कि नहीं? मैंने एक ही बार कह दिया कि सेठजी, ‘संशयात्मा विनश्यति।’ यदि तुम्हारे मनमें संशय ही था तो तुमने पैसे दिये ही क्यों? मुझको तुम्हारी नौकरी करने में कोई आपत्ति नहीं है, मैं तो देखकर आऊँगा, पर तुम्हारे मन में जो शंका है, वह तो तुम्हारे सद्भाव को काट डालेगी। शंका किसको कहते हैं? जो हृदय की शान्ति को काट दे- जो शंकालु है, वह पहले अपने शान्ति का ही नाश करता है। इसलिए ‘योगयुक्तो विशुद्धात्मा’ कर्म करोगे तो अंतःकरण शुद्ध होगा। अंतःकरण शुद्धि का लक्षण यही है कि मन और इन्द्रियाँ अपने वश में हो जाती हैं। विजितात्मा माने जिसका मन वश में हो गया है। हम मन को जहाँ लगा दें, वहाँ वह लग जाय। यही अर्थ होता है ‘विजितात्मा’ का। इसी तरह जितेन्द्रिय का अर्थ यह नहीं कि आँख फोड़ लिया, कान को बहरा कर लिया और जीभ काटकर फेंक दी- इसका नाम जितेन्द्रिय नहीं है। जितेन्द्रिय माने जब बोलना चाहें तब बोलें; जब सुनना चाहें, तब सुनें और जब न चाहें तब इन्द्रियों को बिल्कुल बंद कर दे, ठप्प कर दें। विजितात्मा और जितेन्द्रिय वही है; जिसमें अपन् अंतःकरण बहिष्करण को निर्विषय रखने का सामर्थ्य उदित हो जाय। वह जब चाहे तब सविषय और जब चाहे तब निर्विषय। विचार करे तो विचार, नहीं तो निर्विचार।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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