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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
तृतीय अध्यायअब यह बताते हैं कि कर्म तो प्रकृति के वंश में होता है। पाँच कर्मेन्द्रियाँ पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्च प्राण और यहाँ तक कि मन, बुद्धि, प्राकृत गुण संस्थापक अहंकार, स्वप्न, सुषुप्ति- ये सब प्रकृति के वंश में होते हैं। परंतु प्रकृति के कार्य- अहंकार में जिसका आत्मा विमूढ़ हो जाता है अर्थात् अविवेक के कारण अस्मिता हो जाती है, वह अपने को कर्ता मान बैठता है। वह कर्ता है नहीं, लेकिन अपने को कर्ता मानता है। कभी आपने गौर किया है कि आपके शरीर में जो खून है, इसको कौन चलाता है? मैंने एक दिन अपने डॉक्टर से पूछा कि अभी इन्जेक्शन से आपने जो दवा डाली है, वह कितनी देर में मेरे शरीर में फैल जायेगी? उन्होंने कहा कि महाराज, यह तो शरीर में फैल चुकी है। रक्त इतने जोर से दौड़ता है कि केवल रक्त में दवा गयी और सारे शरीर में घुस गयी। इसलिए मेरा आपसे निवेदन है कि आप बड़े भारी कर्ता हैं, यह तो मैं मानता हूँ; लेकिन क्या शरीर में रक्त को दौड़ाने का काम आप ही करते हैं? शरीर में जो बाल बढ़ते हैं, उनको क्या आप ही बढ़ाते हैं? भोजन का पाचन क्या आप ही करते हैं? मलासपरण क्या आप ही करते हैं? नाड़ी आप हीह चलाते हैं? उत्तर है, नहीं। तो भाई, इतना काम मैं नहीं करता हूँ और इतना काम मैं करता हूँ- यह अहंकार विमूढात्मा का लक्षण है। प्रकृति से महान्, महान् से अहंकार और उस अहंकार में जिसकी आत्मा विमूढ़ हो गयी है माने असंग चैतन्य पुरुष विमूढ़ हो गया है, अटक गया है, वह मानने लगा है कि यह अहंकार प्रकृति का कार्य नहीं है, मैं स्वयं हूँ। इस प्रकार स्वयं प्रकृति के साक्षी होकर, प्रकृति से असंग होकर, प्रकृति के खिलौने को अपना आपा मान बैठना- ‘अहंकार-विमूढात्मा कहलाता है।’ अब आप हो गये कर्ता। माने समझदारी को आले में रखकर आये और बन गये कर्ता! अरे, हाथ के कर्ता तुम नहीं, पाँवों के कर्ता तुम नहीं, जीभ के कर्ता तुम नहीं, दिल-दिमाग के कर्ता तुम नहीं तो फिर कर्ता किसके? तुम्हारे इस कर्तृत्व का विवेक के साथ कोई संबंध नहीं है। एक दृष्टि से प्रकृति और पुरुष का जो विभाजन है, यही आत्मा अनात्मा का विभाजन है और यही वेदान्त की बड़ी सीधी सी बात है। इसके बाद इतना ही करना है कि आत्मा ब्रह्म है और ब्रह्म में प्रकृति की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। इसके बाद तो तत्ववेत्ता पुरुष ही होता है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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