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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
तृतीय अध्यायप्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:। इस शरीर में एक है गुण-विभाग और दूसरा है कर्म-विभाग- ऐसा विभाजन कर दो। जिसको विश्लेषण करना नहीं आता, वह वैज्ञानिक नहीं हो सकता। जो एक में मिले हुए दो तत्वों को लेबोरेटरी में विश्लेषण की प्रक्रिया से अलग-अलग कर दे, वह वैज्ञानिक कहलाता है। इस शरीर में दो चीजें मिली हुई हैं- एक तो असंगात्मा है और दूसरा कर्ता भोक्ता है। इनका विभाजन कर लो। विभाजन माने विश्लेषण कर दो, बँटवारा कर दो, अलग-अलग बाँट दो- इसको इसके हिस्से में और इसको इसके हिस्से में. क्योंकि तुम महाबाहु हो- महाबाहो! तुम्हारे हाथ बड़े लम्बे हैं। तुम बाण मारकर लक्ष्य वेध करने में बड़े निपुण हो। लेकिन तुमने स्थूल लक्ष्य का वेध किया तो क्या किया! जो तत्ववेत्ता हैं, वे गुण-विभाग से और कर्मविभाग से यह विचार करते हैं कि ‘गुणाः गुणेषु वर्तन्ते’- गुणाः कर्माणि गुणेषु विषयेषु वर्तन्ते- अर्थात् इन्द्रियाँ विषयों में बरतती हैं। कितनी भी कोशिश करो, अगर आँख नहीं होगी तो रूप कहाँ से दिखेगा? यह न प्रकृति है और न पुरुष है। फिर क्या है? गुण है। किसी ने कहा कि हाय, उसने मुझे मार डाला। उसने कहा कि यह मैं नहीं, मेरी अदा है। इसी तरह प्रकृति पुरुष को नहीं मारती, यह प्रकृति की अदा है। वह कहीं इन्द्रियों के रूप में जाहिर हो रही है और कहीं विषयों के रूप में जाहिर हो रही है। ये गुण हैं। गुण माने प्रकृति नहीं; प्रकृति के गुण। यह प्रकृति की अदा है कि आँख रूप को देखती है, कान शब्द को सुनता है। लकिन आपने तो अब तक हजारों-हजारों, लाखों-लाखों और करोड़ों शब्द सुनकर छोड़ दिये हैं। न शब्द आपके कान में चिपके हुए हैं और न आपका कान किसी शब्द में चिपका है। इसी तरह हजारों रूप देखकर आँखों ने छोड़ दिया है- न आँख किसी रूप के साथ मरी और न कोई रूप आँख के अन्दर घुसा। आँख तो ज्यों की त्यों है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 27
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