पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
17. बाह्य कर्म मन का दर्पण
4. साधन के रूप में बाहर से स्वधर्माचरण और भीतर से मन का विकर्म, दोनों बातें चाहिए। बाह्य कर्म की भी आवश्यकता है ही। कर्म किये बिना मन की परीक्षा नहीं होती। प्रातःकाल के प्रशांत समय में हमें अपना मन अत्यंत शांत मालूम होता है। परंतु बच्चे को जरा रोने दो, उस मनःशांति की असली कीमत हमें मालूम हो जाती है। अतः बाह्य कर्म को टालने से काम नहीं चलेगा। ऐसे कर्मों से हमारे मन का स्वरूप प्रकट होता है। पानी ऊपर से साफ दीखता है। परन्तु उसमें पत्थर डालिए, तुरंत ही अंदर की गंदगी ऊपर आयेगी। वैसी ही दशा हमारे मन की है। मन के अंतःसरोवर में घुटने भर गंदगी जमा रहती है। बाहरी वस्तु से उसका स्पर्श होते ही वह ऊपर आ जाती है। हम कहते हैं, उसे गुस्सा आ गया। तो यह गुस्सा कहीं बाहर से आ गया? वह तो अंदर ही था। मन में यदि न होता तो वह बाहर दिखायी ही न देता।
लोग कहते हैं- "सफेद खादी नहीं चाहिए, वह मैली हो जाती है। रंगीन खादी मैली नहीं होती।" मैली तो वह भी होती है। हां, दिखायी नहीं देती। सफेद खादी का मैल दीख जाता है। वह कहती है- "मैं मैली हूं, मुझे धोओ।" यह मुंह से बोलने वाली खादी लोगों को पसंद नहीं आती। इसी तरह हमारा कर्म भी बोलता है। कर्म ये बतला देता है कि आप क्रोधी हैं, स्वार्थी हैं या और कुछ हैं। कर्म वह दर्पण है, जो हमारा स्वरूप हमें दिखा देता है। अतः हमें कर्म का आभार मानना चाहिए। दर्पण में यदि हमारा चेहरा मैला-कुचला दिखयी दे, तो क्या हम उसे फोड़ डालेंगे? नहीं, उल्टा उसका आभार मानेंगे। मुंह धो-धाकर फिर उसमें चेहरा देखेंगे। इसी तरह यदि कर्म की बदौलत हमारे मन की गंदगी, कचरा बाहर आता है, तो क्या इसलिए हम कर्म टालेंगे? कर्म को टालने से क्या हमारा मन निर्मल हो जायेगा? अतः कर्म करते रहें और निर्मल होने का उत्तरोत्तर प्रयत्न करते रहें।
5. कोई मनुष्य गुफा में जा बैठता है। वहाँ उसका किसी से भी संपर्क नहीं आता। वह समझने लगता है कि अब मैं बिलकुल शांतमति हो गया। परन्तु गुफा छोड़कर उसे किसी के यहाँ भिक्षा मांगने जाने दीजिए। वहाँ कोई छोटा बच्चा दरवाजे की सांकल बजाता है। वह बाल-ब्रह्म तो उस नाद-ब्रह्म में तल्लीन हो जाता है, परन्तु उस निष्पाप बच्चे का वह सांकल बजाना उस योगी को सहन नहीं होता। वह कहता है- "बच्चे ने क्या खट-खट लगा रखी है।" गुफा में रहकर उसने अपने मन को इतना कमज़ोर बना लिया है कि जरा-सा भी धक्का उसे सहन नहीं होता। जरा खट-खट हुई कि बस, उसकी शांति डिगने लगती है। मन की ऐसी दुर्बल स्थिति अच्छी नहीं।
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