सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
98. अविरोधी जीवन की गीता की योजना
19. आहार-शुद्धि से चित्त-शुद्धि रहेगी। शरीर को भी बल मिलेगा। समाज-सेवा अच्छी तरह हो सकेगी। चित्त में संतोष रहेगा और समाज में भी संतोष फैलेगा। जिस समाज में यज्ञ, दान, तप ये क्रियाएं विधि और मंत्र सहित होती रहती हैं, उसमें विरोध दिखायी नहीं देगा। दो दर्पण यदि एक-दूसरे के आमने-सामने रखे हों, तो जैसे इसमें का उसमें और उसमें का इसमें दीखेगा, उसी तरह व्यक्ति और समाज में बिंब-प्रतिबिंब-न्यास से परस्पर संतोष प्रकट होगा जो मेरा संतोष है, वही समाज का है और जो समाज का है, वही मेरा। इन दोनों संतोषों की हम जांच कर सकते हैं और देखेंगे कि दोनों एकरूप हैं। सर्वत्र अद्धैत का अनुभव होगा। द्वैत और द्रोह अस्त हो जायेंगे। ऐसी सुव्यवस्था जिस योजना के द्वारा हो सकती है, उसी का प्रतिपादन गीता कर रही है। अगर अपना दैनिक कार्यक्रम हम गीता की योजना के अनुसार बनायें, तो कितना अच्छा हो! 20. परंतु आज व्यक्ति और समाज के जीवन में विरोध उत्पन्न हो गया है। यह विरोध कैसे दूर हो सकता है, यही चर्चा सब ओर चल रही है। व्यक्ति और समाज की मर्यादा क्या है? व्यक्ति गौण है या समाज? इनमें श्रेष्ठ कौन है? व्यक्तिवार-समर्थक कुछ लोग समाज को जड़ समझते हैं। सेनापति के सामने कोई सिपाही आता है, तो सेनापति उससे बोलते समय सौम्य भाषा का उपयोग करता है। उसे ‘आप’ भी कहेगा, परंतु सेना को तो वह चाहे जिस तरह हुक्म देगा। मानो सैन्य अचेतन हो, लकड़ी का एक लट्ठ ही उसे इधर-से-उधर हिलायेगा और उधर-से-इधर। व्यक्ति चैतन्यमय है और समाज जड़, ऐसा अनुभव यहाँ भी हो रहा है। देखो, मेरे सामने दो सौ, तीन सौ आदमी हैं, परंतु उन्हें रुचे या न रुचे मै तो बोलता ही जा रहा हूँ। मुझे जो विचार सूझता है, वही कहता हूँ। मानो आप जड़ ही हैं। परंतु मेरे सामने कोई व्यक्ति आयेगा, तो मुझे उसकी बात सुननी पड़ेगी और उसे विचारपूर्वक उत्तर देना पड़ेगा, परंतु यहाँ तो मैंने आपको घंटे-घंटे भर यों ही बैठा रखा है। ‘समाज जड़ है और व्यक्ति चैतन्य’- ऐसा कहकर व्यक्ति- चैतन्यवाद का कोई प्रतिपादन करते हैं तो कोई समुदाय को महत्त्व देते हैं। मेरे बाल झड़ गये, हाथ टूट गया, आंखें चली गयीं और दांत गिर गये। इतना ही नहीं, एक फेफड़ा भी बेकार हो गया, परंतु मैं फिर भी जीवित रहता हूं, क्योंकि पृथक रूप में एक-एक अवयव जड़ है। किसी एक अवयव के नाश से सर्वनाश नहीं होता। सामुदायिक शरीर चलता ही रहता है। इस प्रकार ये दो परस्पर विरोधी विचारधाराएं हैं। आप जिस दृष्टि से देखेंगे, वैसा ही अनुमान निकालेंगे। जिस रंग का चश्मा उसी रंग की सृष्टि! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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