सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
95. उसके लिए त्रिविध क्रियायोग
8. यह जो सेवा करनी है, उसके लिए कुछ ‘भोग’ भी ग्रहण करना पड़ेगा। भोग भी यज्ञ का ही एक अंग है। इस भोग को गीता ‘आहार’ कहती है। इस शरीर रूपी यंत्र को अन्न रूपी कोयला देने की जरूरत है। यद्यपि यह आहार स्वयं यज्ञ नहीं है, तथापि यज्ञ सिद्ध करने का एक अंग अवश्य है। इसलिए हम कहा करते हैं- उदरभण नोहे जाणिजे यज्ञकर्म - ‘यह उदर-भरण नहीं, इसे यज्ञ-कर्म जानो।’ बगीचे से फूल लाकर देवता के सिर पर चढ़ाना, यह पूजा है, परंतु फूल उत्पन्न करने के लिए बगीचे में जो मेहनत की जाती है, वह भी पूजा ही है। यज्ञ पूरा करने के लिए जो-जो क्रिया की जाती है, वह एक प्रकार की पूजा ही है। शरीर तभी हमारे काम में आ सकेगा, जब हम उसे आहार देंगे। यज्ञ-साधन रूप कर्म भी ‘यज्ञ’ ही है। गीता इन कर्मों को ‘तदर्थीय-कर्म’- ‘यज्ञार्थ-कर्म’- कहती है। सेवार्थ शरीर सतत खड़ा रहे इसलिए इस शरीर को जो आहुति दूंगा, वह यज्ञ रूप है। सेवा के लिए किया गया आहार पवित्र है। 9. इन बस बातों के मूल में फिर श्रद्धा चाहिए। सारी सेवा को ईश्वरार्पण करने का भाव मन में होना चाहिए। यह बड़े महत्त्व की बात है। ईश्वरार्पण बुद्धि के बिना सेवामयता नहीं आ सकती। ईश्वरार्पणता इस प्रधान वस्तु को भुला देने से काम नहीं चलेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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