चौदहवां अध्याय
गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार
76. तमोगुण और उसका उपाय शरीर-श्रम
4. पहले हम तमोगुण को लें। वर्तमान समाज-स्थिति में हमें तमोगुण के बहुत ही भयानक परिणाम दिखायी देते हैं। इसका मुख्य परिणाम है, आलस्य। इसी में से फिर नींद और प्रमाद का जन्म होता है। इन तीन बातों को जीत लिया, तो फिर तमोगुण को जीत लिया ही समझो। इनमें आलस्य तो बड़ा ही भयंकर है। अच्छे-से-अच्छे आदमी भी आलस्य के कारण बिगड़ जाते हैं। समाज की सारी सुख-शांति को मिटा डालने वाला यह रिपु है। यह छोटे से लेकर बड़े तक, सबको बिगाड़ देता है। इस शत्रु ने सबको घेर रखा है। यह हम पर हावी होने के लिए घात लगाकर बैठा ही रहता है। जरा-सा मौका मिला कि भीतर घुसा। दो कौर ज्यादा खा लिये कि इसने लेटने को विवश किया। जहाँ ज्यादा लेटे कि आंखों से आलस्य टपका। जब तक इस आलस्य को न पछाड़ा, तब तक सब व्यर्थ है। परंतु हम तो आलस्य के लिए उत्सुक रहते हैं। इच्छा रहती है कि एक बार दिन-रात मेहनत करके रुपया इकट्ठा कर लें, फिर सारी जिंदगी चैन से कटे। बहुत रुपये कमाने का अर्थ है, आगे के लिए आलस्य की तैयारी कर रखना। हम लोग आमतौर पर मानते हैं कि बुढ़ापे में आराम मिलना ही चाहिए; परंतु यह धारणा गलत है। यदि हम जीवन में ठीक तरह से रहें, तो बुढ़ापे में भी काम करते रहेंगे। बल्कि अधिक अनुभवी हो जाने से बुढ़ापे में ज्यादा उपयोगी साबित होंगे। लेकिन उसी समय, कहते हैं कि आराम करेंगे। 5. ऐसी सावधानी रखनी चाहिए कि जिससे आलस्य को जरा-सा भी मौका न मिले। नल राजा इतना महान! परंतु पांव धोते हुए जरा-सा हिस्सा सूखा रह गया, तो कहते हैं कि उसी में से कलि भीतर पैठ गया! नल राजा था तो अत्यंत शुद्ध, सब तरह से स्वच्छ, परंतु जरा-सा शरीर सूखा रह गया, इतना आलस्य रह गया, तो फौरन ‘कलि’ भीतर घुस गया। हमारा तो सारा-का-सारा शरीर खुला पड़ा है। कहीं से भी आलस्य हमारे अंदर घुस सकता है। शरीर अलसाया कि मन-बुद्धि भी अलसाने लगती है। आज के समाज की रचना इस आलस्य पर ही खड़ी है। इससे अनंत दुःख उत्पन्न हो गये हैं। यदि हम इस आलस्य को निकाल सकें तो सब न सही पर बहुत-से दुःखों को तो अवश्य ही हम दूर कर सकेंगे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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