बारहवां अध्याय
सगुण-निर्गुण-भक्ति
66. सगुण-निर्गुण केवल दृष्टिभेद, अतः भक्त लक्षण प्राप्त करें
29. अंत में मुझे यह कहना है कि सगुण क्या और निर्गुण क्या, इसका निश्चय करना भी आसान नहीं है। एक दृष्टि से जो सगुण है, वह दूसरी दृष्टि से निर्गुण सिद्ध हो सकता है। सगुण की सेवा एक पत्थर को लेकर की जाती है। उस पत्थर में भगवान की कल्पना कर लेते हैं। माता में और संतों में प्रत्यक्ष चैतन्य प्रकट हुआ है। उनमें ज्ञान, प्रेम, हार्दिकता प्रकट है। पर उन्हें परमात्मा मानकर पूजा नहीं करते। ये चैतन्यमय लोग सबको प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं। अतः इनकी सेवा करनी चाहिए, उनमें सगुण परमात्मा के दर्शन करने चाहिए, परंतु ऐसा न करके लोग पत्थर में परमेश्वर देखते हैं। एक तरह से पत्थर में परमेश्वर को देखना निर्गुण की पराकाष्ठा है। सतं, मां-बाप, पड़ोसी- इनमें प्रेम, ज्ञान, उपकार-बुद्धि व्यक्त हुई है। उनमें ईश्वर मानना सरल है। परंतु पत्थर में ईश्वर मानना कठिन है। उस नर्मदा के पत्थर को हम गणपति मानते हैं। यह क्या निर्गुण पूजा नहीं है? 30. बल्कि इसके विपरीत ऐसा मालूम होता है कि यदि पत्थर में परमेश्वर की कल्पना न की जाये, तो फिर कहाँ की जाये? भगवान की मूर्ति होने की पात्रता तो उस पत्थर में ही है। वह निर्विकार है, शांत है। अंधकार हो, प्रकाश हो; गर्मी हो, सर्दी हो, वह पत्थर जैसा-का-तैसा ही रहता है। ऐसा यह निर्विकार पत्थर ही परमेश्वर का प्रतीक होने के योग्य है। मां-बाप, जनता, अड़ोसी-पड़ोसी, ये सब विकारों से भरे हैं, अर्थात इनमें कुछ-न-कुछ विकार मिल ही जाता है। अतएव पत्थर की पूजा करने की अपेक्षा उनकी सेवा करना एक दृष्टि से कठिन ही है। 31. सारांश यह कि सगुण-निर्गुण परस्पर पूरक हैं। सगुण सुलभ है, निर्गुण कठिन है, परंतु दूसरी तरह से सगुण भी कठिन है और निर्गुण भी सरल है। दोनों के द्वारा एक ही ध्येय की प्राप्ति होती है। पांचवें अध्याय में जैसा बताया है, चौबीसों घंटे कर्म करके भी लेशमात्र कर्म न करने वाला और चौबीसों घंटे कुछ भी कर्म न करके सब कर्म करने वाला, योगी और संन्यासी, दोनों एकरूप ही हैं, वैसे ही यहाँ भी सगुण कर्मदशा और निर्गुण संन्यास योग, दोनों एकरूप ही हैं। संन्यास श्रेष्ठ है या योग?- इसका उत्तर देने में भगवान को जैसी कठिनाई पड़ी, वैसी ही कठिनाई यहाँ भी आ पड़ी है। अंत में सुलभता-कठिनता के तारतम्य से उत्तर देना पड़ा है, अन्यथा योग और संन्यास, सगुण और निर्गुण, दोनों एकरूप ही हैं। 32. अंत में भगवान कहते हैं- 'अर्जुन, तुम चाहे सगुण रहो या निर्गुण; पर भक्त जरूर रहो, पत्थर मत रहो।' यह कहकर भगवान ने अंत में भक्त के लक्षण बताये हैं। अमृत मधुर होगा, परंतु उसकी माधुरी चखने का अवसर हमें नहीं मिला। किंतु ये लक्षण प्रत्यक्ष मधुर हैं। इसमें कल्पना की जरूरत नहीं है। इन लक्षणों का हम अनुभव लें। बारहवें अध्याय के ये भक्त-लक्षण स्थितप्रज्ञ के लक्षणों की तरह हमें नित्य सेवन करने चाहिए, मनन करने चाहिए और इन्हें थोड़ा-थोड़ा अपने जीवन में उतारकर पुष्टि प्राप्त कर लेनी चाहिए। इस तरह हमें अपना जीवन धीरे-धीरे परमेश्वर की ओर ले जाना चाहिए। [1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रविवार, 8-5-32
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