श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
हित वृन्दावन
यद्यपि राजत अवनि पर सबते ऊँचौ आहि। प्रश्न यह होता है कि यदि भूतल-स्थित प्रगट-वृन्दावन ही नित्य-वृन्दावन है, तो उसकी इस प्रकार प्रतीति हर एक को क्यों नहीं होती ? श्री ध्रुवदास जी उत्तर देते है :- ‘इसमें दोष दृष्टि का है, द्दश्य कहा नहीं है। वृंदावन अपने अनंत प्रेम-वैभव को लेकर नित्य प्रकाशित है आँख रहते हुए न दीखना माया का रूप हे। द्दश्यमान रज्जु में सर्प की मिथ्या प्रतीति को ही माया कहते है। सारे संसार को मोह-गर्त में डालने वाली यह श्रीकृष्ण की माया ही है, जिसके कारण वृंदावन-रूपी रत्न को अपने बीच में पाकर भी हम उसको पहिचान नहीं पाते और उसका निरादर कर देते है’- प्रकट जगत में जगमगै वृंदा विपिन अनूप। जिन रसिक उपासकों की दृष्टि सहज प्रेम के उन्मेष से निर्मल बनी है, उनको भूतल-स्थिर वृन्दावन के खग, मृग, वन-बेली प्रेममय दिखलाई दिये हैं और उन्होनें इन सबका दुलार अपनी रचनाओं में किया है। वृंदावन के वृक्षों का गान करते हुए व्यासजी कहते हैं- ‘मुझको वृन्दावन के वृक्ष प्यारे लगते है। जिनको देखकर सम्पूर्ण कामनायें विलीन हो जाती हैं वे राधा-मोहन इनके नीचे विहार करते हैं। यह प्रेमामृत से सींचे हुए हैं, इसीलिये इनके नीचे माया-काल प्रवेश नहीं कर पाते। इन वृक्षों की एक शाखा तोड़ने से श्री हरि को कोटि गौ-ब्रह्मणों की हत्या से अधिक कष्ट होता है। रसिकों को यह सब कल्पवृक्ष मालूम होते हैं और विंमुखों को ढ़ाक-पिलूख दिखलाई देते हैं। इनका भजन जिह्वा के सम्पूर्ण स्वादों को छोड़ कर किया जाता है। गोपियों ने गृहादिक की सुख-संपत्ति को छोड़ कर इनका भजन किया था। यही रस पान करके परीक्षित ने भोजन छोड़ दिया था और शुक-मुनि को अपने ब्रह्मज्ञान से असंतोष हो गया था। मैंने पपीहा बन कर वृन्दावन-घन का सेवन किया है और मेरे दुख के सर-सरिता सूख गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वृन्दावन शतक
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