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आठवाँ अध्याय
(अक्षर ब्रह्म योग)
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! जिस मार्ग में शरीर छोड़कर गये हुए योगी पीछे लौटकर संसार में नहीं आते और जिस मार्ग में गये हुए पीछे लौटकर संसार में आते हैं, उन दोनों मार्गों को मैं कहता हूँ।
(शुक्लमार्ग का वर्णन-) जिस मार्ग में प्रकाश स्वरूप अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष और छः महीनों वाले उत्तरायण के अधिपति देवताओं के द्वारा क्रमशः जीव को आगे ले जाया जाता है, उस मार्ग से (शरीर छोड़कर) गये हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष पहले ब्रह्मलोक में जाकर रहते हैं। फिर महाप्रलय आने पर वे ब्रह्मा के साथ परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं।
(कृष्णामार्ग का वर्णन-) जिस मार्ग में अंधकार, रात्रि, कृष्णपक्ष और छः महीनों वाले दक्षिणायन के अधिपति देवताओं के द्वारा क्रमशः जीव को आगे ले जाया जाता है, उस मार्ग से (शरीर छोड़कर) गया हुआ सकाम पुरुष स्वर्गादि लोकों में जाकर वहाँ के दिव्य भोग भोगता है। फिर पुण्य क्षीण होने पर वह पुनः संसार में लौटकर जन्म-मरण के चक्कर में पड़ जाता है।
इस प्रकार शुक्ल और कृष्ण- ये दोनों मार्ग अनादिकाल से प्राणिमात्र के साथ संबंध रखने वाले हैं। इनमें से शुक्लमार्ग में जानने वाले को संसार में लौटना नहीं पड़ता और कृष्णमार्ग में जानने वाले को पुनः संसार में लौटना पड़ता है। हे पार्थ! इन दोनों मार्गों के परिणाम को जानने वाला मनुष्य निष्काम हो जाता है, इसलिए वह जन्म-मरण में ले जाने वाले कृष्णमार्ग में नहीं जाता। अतः हे अर्जुन! तुम भी सब समय निष्काम होकर योग (समता-) में स्थित हो जाओ।
जो मनुष्य इस अध्याय में आये विषय को जान लेता है, वह सांसारिक भोगों में न फँसकर मेरे भजन में लग जाता है। इसलिए वह वेद, यज्ञ, तप, दान आदि के जो-जो फल कहे गये हैं, उन सबको पार करके सबके आदि परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
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