गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 231

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साम्यसूत्र-वृत्तिः

‘गीता-प्रवचन’ को विनोबा जी ने नित्य पठनीय कहा है। जैसे कि उनकी अध्ययन की पद्धति रही है, उन्होंने पूरे ग्रन्थ को 108 अधिकरणों में बांटा है। और प्रत्येक अधिकरण को एक-एक सूत्र में गूंथ लिया है। उन 108 सूत्रों को उन्होंने ‘साम्यसूत्र’ कहा। अलावा, पूरे ग्रंथ के 432 परिच्छेदों को भी सूत्रमय स्वरूप दिया है। तो कुल 108+432=540 सूत्र हुए। इन पूरे सूत्रों को उन्होंने ‘साम्यसूत्र-वृत्तिः’ (वृत्ति-विवरण) कहा है। इस प्रकार गीता-प्रवचन का संपूर्ण सार सूत्रमय भाषा में गूंथा गया है। उसके कारण ग्रंथ के विषय को थोड़े में आत्मसात करना सुलभ हो गया है।- संपादक

अध्याय 1
(1) अभिधेयं परम-साम्यम् - 5
1. अथ गीताशासनम्
2. दीपस्तंभवत्
3. रामायण-भारतयोर् वैशिष्टयम्
4. व्यासमुनेर् मननसारः
5. कृष्णत्रयी


(2) संबंधेन- 5
6. अर्जुनस्य भूमिका
7. वीरवृत्तिः
8. अहिंसकवत् भाषते एव
9. मोहांध-न्यायाधीशवत्
10. प्रज्ञावादः


(3) प्रयोजनवत्त्वात् - 5
11. अर्जुनस्य संन्यासो न स्वधर्मः
12. परधर्मः श्रेष्ठ इति न ग्राह्यः
13. सुकर इति न स्वीकार्यः
14. भगवान् भक्त-सापेक्षः
15. मोहमोचनमेव प्रयोजनम्


(4) ऋजुबुद्धेस्तु - 1
16. ऋजुबुद्धिरर्जुनः
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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