सोलहवां अध्याय
परिशिष्ट-1
दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा
88. पुरुषोत्तम-योग की पूर्व-प्रभाः दैवी संपत्ति
3. अब, आज हम देखें कि इस सोलहवें अध्याय में क्या कहा गया है? जिस प्रकार सूर्योदय होने के पहले उसकी प्रभा फैलने लगती है, उसी प्रकार जीवन में कर्म, भक्ति और ज्ञान से पूर्ण पुरुषोत्तम-योग के उदय होने के पहले सद्गुणों की प्रभा बाहर प्रकट होने लगती है। परिपूर्ण जीवन की इस आगामी प्रभा का वर्णन इस सोलहवें अध्याय में किया गया है। किस अंधकार से झगड़कर यह प्रभा प्रकट होती है, उसका भी वर्णन इसमें किया गया है। किसी वस्तु को मानने के लिए हम कोई प्रत्यक्ष प्रमाण देखना चाहते हैं। सेवा, भक्ति और ज्ञान हमारे जीवन में आ गये हैं, यह कैसे समझा जाये। खेत पर हम मेहनत करते हैं, तो उसके फलस्वरूप अनाज की फसल हम तौल-नापकर घर ले आते हैं। इसी तरह हम जो साधना करते है, उससे हमें क्या-क्या अनुभव हुए, कितनी सद्वृत्तियां गहरी पैठीं, कितने सद्गुण हममें आये, जीवन सचमुच सेवामय कितना हुआ- इसकी जांच करने की ओर यह अध्याय संकेत करता है। जीवन की कला कितनी ऊंची चढ़ी, इसे नापने के लिए यह अध्याय है। जीवन की इस वर्धमान कला को गीता ‘दैवी संपत्ति’ का नाम देती है। इसके विरुद्ध जो वृत्तियां हैं, उन्हें ‘आसुरी’ कहा है। सोलहवें अध्याय में दैवी और आसुरी संपत्तियों का संघर्ष बताया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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