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तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
69. देहासक्ति से जीवन अवरुद्ध
10. ‘देह ही मैं हूं’, यह जो भावना सर्वत्र फैल रही है, इसके फलस्वरूप मनुष्य के बिना विचारे ही देह-पुष्टि के लिए नाना प्रकार के साधन निर्माण कर लिये हैं। उन्हें देखकर बड़ा भय मालूम होता है। मनुष्य को सदैव लगता रहता है कि यह देह पुरानी हो गयी, जीर्ण-शीर्ण हो गयी, तो भी येन-केन प्रकारेण इसे बनाये ही रखना चाहिए; परंतु आखिर इस देह को, इस छिलके को आप कब तक टिकाकर रख सकेंगे? मृत्यु तक ही न? जब मौत की घड़ी आ जाती है तो क्षण भर भी शरीर टिकाये नहीं रख सकते। मृत्यु के आगे सारा गर्व ठंडा पड़ जाता है। फिर भी तुच्छ देह के लिए मनुष्य नाना प्रकार के साधन जुटाता है। दिन-रात इस देह की चिंता करता है।
कहते हैं कि देह की रक्षा के लिए मांस खाने में कोई हर्ज नहीं है। मानो मनुष्य की देह बड़ी कीमती है! उसे बचाने के लिए मांस खाओ। तो पशु की देह क्या कीमत में कम है? और है, तो क्यों? मनुष्य-देह क्यों कीमती सिद्ध हुई? क्या कारण है? पशु चाहे जिसे खाते हैं, सिवा स्वार्थ के वे दूसरा कोई विचार ही नहीं करते! मनुष्य ऐसा नही करता, वह अपने आसपास की सृष्टि की रक्षा करता है। अतः मानव-देह का मोल है, इसलिए वह कीमती है। परंतु जिस कारण मनुष्य की देह कीमती साबित हुई, उसी को तुम मांस खाकर नष्ट कर देते हो! भले आदमी, तुम्हारा बड़प्पन तो इसी बात पर अवलंबित है न कि तुम संयम से रहते हो, सब जीवों की रक्षा के लिए उद्योग करते हो, सबकी सार-संभाल रखने की भावना तुममें है। पशु से भिन्न जो यह विशेषता तुममें है उसी से न मनुष्य श्रेष्ठ कहलाता है? इसी से मानव-देह ‘दुर्लभ‘ कही गयी है। परंतु जिस आधार पर मनुष्य बड़ा, श्रेष्ठ हुआ है, उसी को यदि वह उखाड़ने लगे, तो फिर उसके बड़प्पन की इमारत टिकेगी कैसे? साधारण पशु जो अन्य प्राणियों का मांस खाने की क्रिया करते हैं, वही क्रिया यदि मनुष्य निःसंकोच होकर करने लगे, तो फिर उसके बड़प्पन का आधार ही खींच लेने जैसा होगा। यह तो जिस डाल पर मैं बैठा हूं, उसी को काटने का प्रयत्न करने जैसा हुआ।
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