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तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
68. सुधार का मूलाधार
5.सारग्राही दृष्टि रखने का विचार बहुत महत्त्वपूर्ण है। यदि बचपन से ही हम ऐसी आदत डाल लें, तो कितना अच्छा हो! यह विषय हजम कर लेने जैसा है। यह दृष्टि स्वीकार करने योग्य है। बहुतों को ऐसा लगता है कि अध्यात्म-विद्या का जीवन से कोई संबंध नहीं। कुछ लोगों का ऐसा भी मत है कि यदि ऐसा कोई संबंध भी हो, तो वह नहीं होना चाहिए। देह से आत्मा को अलग समझने की शिक्षा बचपन से ही देने की योजना की जा सके, तो बड़े आनंद की बात होगी। यह शिक्षा का विषय है। आजकल कुशिक्षा के फलस्वरूप बड़े बुरे संस्कार हो रहे हैं। 'मैं केवल देहरूप हूं'- इस कल्पना में से यह शिक्षा हमें बाहर लाती ही नहीं। सब देह के ही चोंचले चल रहे हैं। किंतु इसके बावजूद देह को जो स्वरूप प्राप्त होना चाहिए, या देना चाहिए, वह तो कहीं दिखायी ही नहीं देता। इस तरह इस देह की यह वृथा पूजा हो रही है। आत्मा के माधुर्य की ओर ध्यान ही नहीं है। वर्तमान शिक्षा-पद्धति से यह स्थिति बन गयी है। इस तरह देह की पूजा का अभ्यास दिन-रात कराया जाता है।
ठेठ बचपन से ही हमें इस देह-देवता की पूजा-अर्चा करना सिखाया जाता है। जरा कहीं पांव में ठोकर लग गयी, तो मिट्टी लगाने से काम चल जाता है। बच्चे का इतने भर से काम निपट जाता है या मिट्टी लगाने की भी उसे जरूरत महसूस नहीं होती। थोड़ी-बहुत चोट-खुरच लगी तो वह चिंता भी नहीं करेगा, परंतु उस बच्चे का जो संरक्षक है, पालक है, उसका इतने से नहीं चलता। वह बच्चे को पास बुलाकर कहेगा- "हाय राम, चोट लग गयी! कैसे लगी, कहाँ लगी? अरेरे, खून निकल आया है!" ऐसा कहकर, वह बच्चा न रोता हो तो उलटा उसे रुला देता है। न रोने वाले बच्चे को रुलाने की इस वृत्ति को क्या कहा जाये? कहते हैं- "कूदफांद मत करो, खेलने मत जाओ, देखो गिर पड़ोगे, चोट लग जायेगी", इस तरह देह पर ही ध्यान देने वाली एकांगी शिक्षा दी जाती है।
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