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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
द्वितीय अध्यायएक भक्त कवि की कविता याद आ गयी- प्रभु नहीं चीन्हा रे उमरिया बीत गयी। बोले, कि नहीं-नहीं, डरना मत। जो धर्म गिरे हुए को ऊपर नहीं उठायेगा, नीचे को ऊँचा नहीं बनायेगा, वह धर्म कहाँ रहेगा? जिस धर्म में पतित को पावन करने की सामर्थ्य नहीं है, उस धर्म की आवश्यकता ही कहाँ है? धर्म वह है, जो पतित को पावन बना दे, नीच को ऊँच बना दे और केवल ब्राह्मण का ही कल्याण न करे; वरन जो भी उसके पास जाये, उसका ही कल्याण करे। वह धर्म ऐसा है कि यदि मरने के दिन भी मरते-मरते भी उसका स्मरण हो जाये, बोध हो जाये तो काम बन जाये। ‘स्थित्वा स्यामन्तकालेऽपि’ सारी जिंदगी वेदान्ततत्व का चिन्तन करते-करते बीत गयी। ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हुआ; लेकिन यदि कदाचित् भाग्योदय से सत्संग से, श्रवण से, आखिरी साँस में भी अपने ब्रह्मत्व का बोध होकर जीवत्व का भ्रम मिट गया तो ‘ब्रह्मनिर्वाणम् ऋच्छति’ [1] निर्वाण माने जहाँ संसार को प्रकाशित करने वाली दीया बुझ जाती है; वह वृत्ति शान्त हो जात है, जो संसार को प्रकाशित करने वाली है, संसार में सत्यत्व की भ्रान्ति कराने वाली है। जो दीया हम जलाते हैं, उसमें श्रद्धा का तो तेल हो, बुद्धि का पात्र हो और वृत्ति में आरूढ़ आत्मा की ज्योति हो। अविद्या अंधकार है, उस अविद्या की निवृत्ति मोक्ष है और इस सब तमाशे को देखने वाला जो साक्षी है, वही ब्रह्म है; आत्मा है। यही है वेदान्त का सार। ‘ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति’- माने ब्रह्मनिर्वाण की प्राप्ति हो गयी। ब्रह्मनिर्वाण शब्द को कोई शब्द मानते हैं- ब्रह्म में निर्वाण, ब्रह्मरूप निर्वाण और कोई निर्वाण से अलग मानते हैं। ब्रह्म कैसा है? निर्वाण है, ऐसा निर्वाण है, जिसके पास गति नहीं है- वाण माने गति। और ऐसा निर्वाण है, जिसमें वासना की गंध नहीं है- वाण माने गंध। जिसमें वासना की तो गंध नहीं है और जन्म से जन्मान्तर की, लोक से लोकान्तर की गति नहीं है, उसको बोलते हैं निर्वाण। अब आजो, निर्वाण ही कर लें। पहले बाण लगता है तो उसके लगने का लक्षण क्या है? शरीर में दर्द होता है। आनन्द के विरुद्ध बाण हो तो दुःख होता है। फिर बेहोश हो जायेंगे तो वह चेतन के विरुद्ध हो जायेगा और उसके बाद मर जायेंगे। इस प्रकार बाण तीन काम करता है- पहले दुख देता है, फिर बेहोश करता है और फिर मार डालता है, लेकिन निर्वाण माने यह होता है कि उसमें न दुख है, न बेहोशी है और न मृत्यु है। तीनों से मुक्ति है। जिसमें वासना है नहीं और जाना-आना है नहीं, उसका नाम हुआ निर्वाण। ‘ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2.72)
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