तब पार्थ ने देखा वहाँ, सब हैं स्वजन बूढ़े बड़े।
आचार्य भाई पुत्र मामा, पौत्र प्रियजन हैं खड़े॥26॥
स्नेही ससुर देखे खड़े, कौन्तेय ने देखा जहाँ।
दोनों दलों में देखकर, प्रिय बन्धु बान्धव हो वहाँ॥27॥
कहने लगे इस भाँति तब, होकर कृपायुत खिन्न से।
हे कृष्ण! रण में देखकर, एकत्र मित्र अभिन्न-से॥28॥
होते शिथिल हैं अंग सारे, सूख मेरा मुख रहा।
तन काँपता थर-थर तथा रोमाञ्च होता है महा॥29॥
गाण्डीव गिरता हाथ से, जलता समस्त शरीर है।
मैं रह नहीं पाता खड़ा, मन भ्रमित और अधीर है॥30॥