सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
अठारहवाँ अध्याय(मोक्ष संन्यास योग)(तीन प्रकार के कर्म-) शास्त्रविधि से नियत किया हुआ जो कर्म फलेच्छारहित मनुष्य के द्वारा कर्तृत्वाभिमान (‘मैं कर्ता हूँ’- यह भाव) और राग द्वेष से रहित होकर किया जाता है, वह कर्म ‘सात्त्विक’ है। जो कर्म भोगो की इच्छा से, अहंकार से अथवा परिश्रम से किया जाता है, वह कर्म ‘राजस’ है। जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न देखकर अर्थात् ‘इस कार्य को करने से परिणाम में कितना नुकसान होगा, अपने तथा दूसरे के शरीरों की कितनी हानि होगी, कितने जीवों की हिंसा होगी, और इस कार्य को करने की मुझमें कितनी शक्ति, योग्यता है’- इस पर कुछ भी विचार न करके मोह पूर्वक किया जाता है, वह कर्म ‘तामस’ है।
(तीन प्रकार के कर्ता-) जो कर्ता आसक्ति से रहित, अहंकार से रहित, धैर्य तथा उत्साह से युक्त और कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में निर्विकार रहता है, वह कर्ता ‘सात्त्विक’ है। जो कर्ता रागी, कर्मफल की इच्छावाला, लोभी, हिंसा के स्वभाववाला, अशुद्ध और हर्ष शोक से युक्त है, वह कर्ता ‘राजस’ है। जो कर्ता असावधान, कर्तव्य-अकर्तव्य की शिक्षा से रहित, ऐंठ-अकड़वाला, जिद्दी, कृतघ्नी, आलसी, विषादी अथवा अशान्त और दीर्घसूत्री (थोड़े समय में होने वाले काम में भी ज्यादा समय लगाने वाला) है, वह कर्ता ‘तामस’ है। |
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- ↑ अपनी मान्यता, सिद्धांत, लक्ष्य, भाव, क्रिया, वृत्ति, विचार आदि को दृढ़, अटल रखने की शक्ति का नाम ‘धृति’ है।
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