सहज गीता -रामसुखदास पृ. 96

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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अठारहवाँ अध्याय

(मोक्ष संन्यास योग)

(तीन प्रकार के कर्म-) शास्त्रविधि से नियत किया हुआ जो कर्म फलेच्छारहित मनुष्य के द्वारा कर्तृत्वाभिमान (‘मैं कर्ता हूँ’- यह भाव) और राग द्वेष से रहित होकर किया जाता है, वह कर्म ‘सात्त्विक’ है। जो कर्म भोगो की इच्छा से, अहंकार से अथवा परिश्रम से किया जाता है, वह कर्म ‘राजस’ है। जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न देखकर अर्थात् ‘इस कार्य को करने से परिणाम में कितना नुकसान होगा, अपने तथा दूसरे के शरीरों की कितनी हानि होगी, कितने जीवों की हिंसा होगी, और इस कार्य को करने की मुझमें कितनी शक्ति, योग्यता है’- इस पर कुछ भी विचार न करके मोह पूर्वक किया जाता है, वह कर्म ‘तामस’ है। (तीन प्रकार के कर्ता-) जो कर्ता आसक्ति से रहित, अहंकार से रहित, धैर्य तथा उत्साह से युक्त और कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में निर्विकार रहता है, वह कर्ता ‘सात्त्विक’ है। जो कर्ता रागी, कर्मफल की इच्छावाला, लोभी, हिंसा के स्वभाववाला, अशुद्ध और हर्ष शोक से युक्त है, वह कर्ता ‘राजस’ है। जो कर्ता असावधान, कर्तव्य-अकर्तव्य की शिक्षा से रहित, ऐंठ-अकड़वाला, जिद्दी, कृतघ्नी, आलसी, विषादी अथवा अशान्त और दीर्घसूत्री (थोड़े समय में होने वाले काम में भी ज्यादा समय लगाने वाला) है, वह कर्ता ‘तामस’ है।
हे धनंजय! अब तुम गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति[1] (धारण शक्ति)- के भी तीन-तीन भेद सुनो।
(तीन प्रकार की बुद्धि-) हे पार्थ! जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति को, कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय के कारण को तथा बंधन और मोक्ष को ठीक-ठीक जानती है, वह बुद्धि ‘सात्त्विकी’ है। हे पार्थ! जो बुद्धि धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी ठीक तरह से नहीं जानती, वह बुद्धि ‘राजसी’ है। हे पृथानन्दन! तमोगुण से घिरी हुई जो बुद्धि धर्म को अधर्म तथा अधर्म को धर्म और सब बातों को विपरीत, उल्टा ही मान लेती है, वह बुद्धि ‘तामसी’ है।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104
  1. अपनी मान्यता, सिद्धांत, लक्ष्य, भाव, क्रिया, वृत्ति, विचार आदि को दृढ़, अटल रखने की शक्ति का नाम ‘धृति’ है।

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