सहज गीता -रामसुखदास पृ. 94

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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अठारहवाँ अध्याय

(मोक्ष संन्यास योग)

राग और द्वेष- इन दोनों से ही संसार से संबंध जुड़ता है। अतः श्रेष्ठ मनुष्य वही है, जो निषिद्ध कर्मों का त्याग तो करता है, पर द्वेषपूर्वक नहीं और शास्त्रनियत कर्तव्य कर्म तो करता है, पर रागपूर्वक नहीं। ऐसा बुद्धिमान त्यागी मनुष्य संदेहरहित होकर अपने स्वरूप में स्थित रहता है। कारण कि देह के साथ संबंध रखने वाले किसी भी मनुष्य के द्वारा कर्मों का सर्वथा त्याग करना संभव नहीं है। इसलिए जो कर्मफल ककी इच्छा का त्याग करता है, वही वास्तव में ‘त्यागी’ है। तात्पर्य है कि बाहर का त्याग वास्तव में त्याग नहीं है, अपितु भीतर का त्याग ही त्याग है। जो कर्मफल की इच्छा रखकर कर्म करते हैं, उन्हें तीन तरह का कर्मफल अवश्य प्राप्त होता है- इष्ट (सुखदायी परिस्थिति), अनिष्ट (दुखदायी परिस्थिति) और मिश्रित (कुछ भाग इष्ट का और कुछ भाग अनिष्ट का)। परंतु जो कर्मफल की इच्छा का त्याग करके कर्म करते हैं, उन्हें यहाँ और मरने के बाद भी कर्मफल प्राप्त नहीं होता।
हे महाबाहो! जिसमें संपूर्ण कर्मों का अंत हो जाता है, उस सांख्य सिद्धांत में संपूर्ण कर्मों के सिद्ध होने में ये पाँच कारण बताये गये हैं-

  1. शरीर,
  2. कर्ता,
  3. करण अर्थात् अन्तःकरण (मन, बुद्धि तथा अहंकार) और बहिःकरण (दस इंद्रियों),
  4. करणों के द्वारा होने वाली अलग-अलग चेष्टाएँ, और
  5. संस्कार।
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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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