सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
अठारहवाँ अध्याय(मोक्ष संन्यास योग)राग और द्वेष- इन दोनों से ही संसार से संबंध जुड़ता है। अतः श्रेष्ठ मनुष्य वही है, जो निषिद्ध कर्मों का त्याग तो करता है, पर द्वेषपूर्वक नहीं और शास्त्रनियत कर्तव्य कर्म तो करता है, पर रागपूर्वक नहीं। ऐसा बुद्धिमान त्यागी मनुष्य संदेहरहित होकर अपने स्वरूप में स्थित रहता है। कारण कि देह के साथ संबंध रखने वाले किसी भी मनुष्य के द्वारा कर्मों का सर्वथा त्याग करना संभव नहीं है। इसलिए जो कर्मफल ककी इच्छा का त्याग करता है, वही वास्तव में ‘त्यागी’ है। तात्पर्य है कि बाहर का त्याग वास्तव में त्याग नहीं है, अपितु भीतर का त्याग ही त्याग है। जो कर्मफल की इच्छा रखकर कर्म करते हैं, उन्हें तीन तरह का कर्मफल अवश्य प्राप्त होता है- इष्ट (सुखदायी परिस्थिति), अनिष्ट (दुखदायी परिस्थिति) और मिश्रित (कुछ भाग इष्ट का और कुछ भाग अनिष्ट का)। परंतु जो कर्मफल की इच्छा का त्याग करके कर्म करते हैं, उन्हें यहाँ और मरने के बाद भी कर्मफल प्राप्त नहीं होता।
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