सहज गीता -रामसुखदास पृ. 92

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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सत्रहवाँ अध्याय

(श्रद्धात्रय विभाग योग)

हे पार्थ! परमात्मा के ‘सत्’ नाम का प्रयोग सत्तामात्र में और श्रेष्ठ भाव (सद्गुण-सदाचार)- में किया जाता है। श्रेष्ठ कर्म के साथ भी ‘सत्’ शब्द जोड़ा जाता है। यज्ञ, तप तथा दान आदि में मनुष्य की जो स्थिति (निष्ठा, श्रद्धा) है, वह भी ‘सत्’ कही जाती है। उस परमात्मा के निमित्त जो भी लौकिक या पारमार्थिक कर्म किया जाता है, वह सब ‘सत्’ कहा जाता है। तात्पर्य है कि सत्यस्वरूप परमात्मा के साथ संबंध होने से उन कर्मों का फल ‘सत्’ कहा जाता है। तात्पर्य है कि सत्स्वरूप परमात्मा के साथ संबंध होने से उन कर्मों का फल ‘सत्’ हो जाता है अर्थात् उनसे परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
हे पार्थ! अश्रद्धा से किया हुआ यज्ञ, दान, तप तथा और भी जो कुछ शास्त्रीय कर्म किया जाय, वह सब ‘असत्’ कहा जाता है। उसका फल न तो यहाँ होता है और न मरने के बाद ही होता है अर्थात् उसका अविनाशी फल नहीं होता। तात्पर्य है कि परमात्मा की प्राप्ति में क्रिया की मुख्यता नहीं है, अपितु श्रद्धा भाव की मुख्यता है।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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