सहज गीता -रामसुखदास पृ. 78

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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चौदहवाँ अध्याय

(गुणत्रयविभाग योग)

गुणों के सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं अर्थात् सभी क्रियाएँ प्रकृति के गुणों से ही हो रही हैं- ऐसा जानकर जो विवेकी साधक अपने-आपको तीनों गुणों से अलग अनुभव कर लेता है, वह मुझे प्राप्त हो जाता है। ऐसा विवेकी साधक तीनों गुणों से संबंध विच्छेद करके जन्म, मृत्यु तथा वृद्धावस्था के दुखों से छूट जाता है और अमरता का अनुभव कर लेता है।
गुणातीत मनुष्य के द्वारा अमरता प्राप्त करने की बात सुनकर अर्जुन के मन में गुणातीत मनुष्य के लक्षण जानने की जिज्ञासा हुई और उन्होंने भगवान् से पूछा- हे प्रभो! मैं यह जानना चाहता हूँ कि इन तीनों गुणों से असंग हुए मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं? उसके आचरण कैसे होते हैं? और साधक किस उपाय से इन तीनों गुणों से असंग (गुणातीत) हो सकता है?
श्रीभगवान् बोले- (गुणातीत मनुष्य के लक्षण-) हे पाण्डव! सत्त्वगुण की वृत्ति ‘प्रकाश’, तमोगुण की वृत्ति ‘प्रवृत्ति’ और तमोगुण की वृत्ति ‘मोह’- इन तीनों के अच्छी तरह आने पर भी गुणातीत मनुष्य ‘ये वृत्तियाँ न रहें’- ऐसा द्वेष नहीं करता और ‘ये पुनः आ जायँ’- ऐसी इच्छा नहीं करता। वह इन वृत्तियों से स्वाभाविक ही निर्लिप्त रहता है। वह उदासीन की तरह रहता है। अंतःकरण में गुणों की वृत्तियाँ आने पर भी वह उनसे विचलित नहीं होता। वह ‘गुण ह गुणों में बरत रहे हैं अर्थात् गुणों में ही संपूर्ण क्रियाएँ हो रही हैं’- ऐसा अनुभव करते हुए अपने स्वरूप में निर्विकार रूप से स्थित रहता है और स्वयं कुछ भी चेष्टा नहीं करता।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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